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४.
भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् वाहिनीभिरवनीधरगाभिविस्तृताभिरधिकं घनवाहैः । कुम्भिकुम्भतटवामरयाभिः , पाथसांपतिरिवायमभासीत् ॥
पर्वतों से गुजरती हुई, शक्तिशाली घोड़ों से अधिक विस्तृत, हाथियों के कुम्भतट से सुंदर वेगवाली सेनाओं से महाराज भरत समुद्र की भांति प्रभासित हो रहे थे। (जैसे समुद्र पर्वतों से निकली हुई, मेघ के जल से अत्यधिक विस्तृत, हाथियों के कुंभस्थल रूपी तट से वक्र वेगवाली नदियों से शोभित होता है।)
५.
दानवारिपति'रात्मतुरङ्गभ्रान्तितो भवतु माऽस्मदभीप्सुः। .. स्वक्षुरोद्धतरजोभिरितीव , व्योम वाजिभिरकारि सवासः ॥
सेना के घोड़ों ने सोचा कि देवताओं का स्वामी इन्द्र अपने घोड़ों की भ्रांति से हमें अपना न कर ले, इसलिए मानो कि उन्होंने अपने खुरों से उठे हुए रजःकण रूपी वस्त्र से आकाश को ढक दिया।
६.
वारणाः कुथपरिष्कृतदेहान्', वीक्ष्य सिंहवदनाकृतिवाहान्। बिभ्यतः कथमपीह विधार्या ;यंत्रिमिश्चकितपौरसुनेत्राः ॥
रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित सिंह-मुख की आकृति वाले अश्वों को देख हाथी डर गए। उन्होंने नगर की स्त्रियों को भयभीत कर डाला। महावतों ने ज्यों-त्यों उनको वश में किया।
७. कैश्चनोज्झितधरैरतिवेगात् , सप्तिभिर्गगनमेव ललम्बे ।
पार्श्वसंचरदऽनेकप राजीऊक्ष्य पक्षिभिरिवाततपक्षः॥ १. दानवारिपतिः-इन्द्र। २. अभीप्सुः-वाञ्छकः। ३. सवासः–वाससा सहितः सवासः, सवस्त्रम् इत्यर्थः । ४. कुथ.........—पंजिकाकार ने 'कुथ' का अर्थ कवच किया है। पूरे पद का अर्थ होगा-कवच
से वेष्टित शरीरवाले (घोड़े) । संस्कृत कोश में 'कुथ' का अर्थ है—हाथी की झूल । (अभि० ३।३४४) । यदि 'कुथ' को हम पशुओं के शरीर को अलंकृत करने वाला कपड़ा मानें तो इसका
अर्थ होगा-रंग-बिरंगे कपड़ों से शोभित शरीर वाले घोड़े। ५. सिंह.....-सिंहमुखाकाराश्वान् । ६. यन्ता-महावत (हस्त्यारोहे सादियन्त–अभि० ३।४२६) ७. चकित......-भीतपौरस्त्रीकाः ।। ८. सप्तिः–घोड़ा (गन्धर्वोऽर्वा सप्तिवीती-अभि० ४।२६६) .. ६. अनेकप:-हाथी (हस्ती मतङ्गजगजद्विपकर्यनेकपा-अभि० ४।२८३ ।).