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________________ २१२ - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् - 'प्रियतम ! आप जितने लज्जाशील हैं उतने लज्जाशील पुरुष इस संसार में कोई नहीं है । किन्तु संग्राम में आप इस लज्जा को छोड़ दें। क्योंकि अस्थान में अमृत भी विष बन जाता है। ३६. वीरसूर्जननी तेऽस्तु , पिता वीरः पुनस्तव । त्वदेव सांप्रतं वीर ! , वीरपत्नी भवित्र्यहम् ॥ 'हे वीर ! आपकी माता वीर पुत्रों को पैदा करनेवाली बने और आपके पिता भी वीर पुत्र के पिता हों । देव ! अब मैं आपसे ही वीर की पत्नी होऊंगी।' ३७. सत्वरं त्वं मम स्नेहादागतो ग्रामतः प्रिय ! । - संग्रामे न त्वरा कार्या , स्वामिचित्तानुगो भवः॥ 'हे प्रिय ! आप मेरे स्नेह के वशीभूत होकर गांव से शीघ्र ही मेरे पास आ जाते थे, किन्तु संग्राम में आप जल्दबाजी न करें। आप अपने स्वामी के चित्त के अनुसार कार्य करने वाले हों।' ३८. मम वक्षसि निःशङ्क, पातिताः करजा' यथा । त्वया मत्तेभकुम्भेषु , प्रापणीयास्तथा शराः ॥ 'देव ! आपने निःशंक होकर मेरे वक्षस्थल पर नखों के, प्रहार किए । इसी प्रकार आप युद्ध-स्थल में मदोन्मत्त हाथियों के कुंभस्थलों पर अपने बाणों से प्रहार करें।' ३६. रणव्योम्नि परे वीरास्तव तेजोनिधः पुरः।। तारका इव नश्यन्तु , त्वत्प्रतापोस्तु वृद्धिमान् ॥ 'नाथ ! आप तेज के निधान हैं—सूर्य हैं । युद्धाकाश में आपके आगे शत्रुओं के सुभट तारों की भांति नष्ट हो जाएं ! आपका प्रताप सतत वृद्धिगत होता रहे ।' ४०. भटशौर्यबृहद्भानुदीपनाय घृतं वचः। सर्वासामिति नारीणां , निर्ययौ मुखभाण्डतः ॥ 'इस प्रकार वहां की समस्त नारियों के मुख से ऐसे वचन निकल रहे थे जो कि सुभटों के पराक्रम रूपी अग्नि को उद्दिप्त करने के लिए घृत का काम कर रहे थे।' १. करज:-नख (करजो नखरो नख:-अभि० ३।२५८) । २. बृहद्भानु:-अग्नि (वन्हिबृहद्भानुहिरण्यरेतसौ-अभि० ४।१६३)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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