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________________ एकादशः सर्गः . २११ 'जिस प्रकार आप मुझे छोड़कर प्रसन्नचित्त से रणक्षेत्र में जा रहे हैं, वैसे ही आप वीरता को छोड़कर पुनः यहाँ घर पर न आयें ।' ३१. कातरत्वं मसाभ्यणे' , मुक्त्वा त्वं धाव संयते । प्राहुः पुराविदोप्येवं , स्त्रीत्वं धर्यविलोपि हि ॥ 'नाथ ! आप कायरता को मेरे पास छोड़कर संग्राम की ओर वेग से चले जायें। प्राचीन विद्वानों ने भी यही कहा है कि स्त्रीत्व धर्य का लोप करने वाला होता है।' ३२. युद्ध शस्त्रप्रहारोऽयं , कोशलाबहलीशयोः । इति कोत्तिश्चिरं वीर ! , तवाङ्ग स्थास्यति ध्रुवम् ॥ "हे वीर ! यह शस्त्र-प्रहार भरत-बाहुबली के युद्ध में लगा था-ऐसी कीत्ति चिरकाल तक सदा आपके साथ रहेगी।' ३३. त्वं तु पाणिग्रहेऽन्यस्या , मद्गुणेषु मनो न्यधाः । जयश्रीवरणे वीर ! , मानसं मयि मा कृथाः ॥ 'वीर ! आपने दूसरी कान्ता के साथ विवाह करने के समय मेरे गुणों में अपने चित्त को आरोपित किया था। किन्तु अब जय रूपी लक्ष्मी के वरणकाल में मेरे प्रति चित्त न करें।' ३४. सखलति स्नेहशैलेन्द्र' , तटिनीव रसा मम ।। ... प्राणैरपि यशश्चेयं , प्रशस्या हि यशोधनाः ॥ 'नाथ ! जैसे नदी पर्वत के पास पहुंचकर स्खलित होती है, वैसे ही मेरी जीभ स्नेह रूपी पर्वत से टकरा कर स्खलित हो रही है । देव ! प्राण देकर भी यश को पुष्ट करना है। क्योंकि यशस्वी व्यक्ति ही प्रशंसनीय होते हैं।' ३५. त्वं दाक्षिण्यपरों यादृक् , तादृग नान्यो भुवस्तले । नात्र दाक्षिण्यमाघेयमस्थाने ह्यमृतं विषम् ।। १. अभ्यर्णम्-निकट (अभि० ६।८७) २. संयते-संग्रामाय । ३. इत्यत्र निमित्तात् कर्मयोगे सप्तमी । ४. रसा-जीभ (अभि० ३।२४६ शेष) ५. दाक्षिण्यपरः-लज्जाशीलः ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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