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. . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् है। उन कायर सुभटों को धिक्कार है जो अपमान से कलंकित प्राणों को धारण करते हुए जीते हैं।'
२६. सुरभिस्त्वं यशःकुन्दैः', सुरभीकुरु मामपि ।
- मलये चन्दनायन्ते , सर्वेपि मारुहा यतः ॥
'पतिदेव ! आप स्वयं वसंत ऋतु के समान हैं । मुझे भी आप यश रूपी कुन्द के फूलों से सुरभित करें। क्योंकि मलय पर्वत पर सारे वृक्ष चन्दन की भाँति महक देने वाले बन जाते हैं।'
२७. यशश्चन्द्रोदये स्फोते , भटिमादिगण स्तव ।
रणव्योम्नि मटोत्तंस ! , मूनि न स्यात् परातपः ॥ .
'हे वीर शिरोमगे ! युद्व के नभस्तल में जब आपके पराक्रम के धागों से बुवा हुआ यशरूपी विस्तृत चन्दोवा तन जायेगा तब शत्रुओं का आतप आपके मस्तिष्क परनहीं पड़ेगा।'
२८. उत्सङ्गसङ्गिनी तेऽस्तु , जयश्रीः समराङ्गणे ।'
सपत्न्यापि तया बाद, नाऽहं सेा त्वयि प्रिय ! ॥
'हे प्रिय | समरांगण में जयश्री आपके उत्संग में बैठी रहे । वह निश्चित ही मेरी सौत (सपत्नी) होगी, फिर भी मैं आपके प्रति ईर्ष्या नहीं करूंगी।'
२९. ज्ञातस्त्वं सर्वदा कान्त ! , रतेऽपि करुणापरः।
तत्त्वया न कृपा कार्या , वीर ! वैरिरणक्षणे ॥
'नाथ ! मैंने सदा यही जाना कि आप संभोग में भी करुणापर हैं। किन्तु हे वीर ! शत्रुओं के साथ युद्ध करने के क्षण में आप कभी करुणा न करें।'
३०. मां विहाय यथा यासि , प्रमना स्त्वं रणाङ्गणे ।
न तथा वीरतां हित्वाऽत्रागम्यं भवता गृहे ॥
१. सुरभिः–वसन्त ऋतु (वसन्त इष्यः सुरभि:--अभि० २०७०) । २. यशःकुन्द:-कीतिकुन्दकुसुमः ।
३. चन्द्रोदय:-चन्दोवा (अभि० ३।३४५) ४. गुणः-तन्तु (शुल्वं तन्त्री वटी गुण:-अभि० ३।५९२) ५. परः-शनुः, तस्य आतपः।। ६. प्रमना:-प्रसन्न चित्त वाला (प्रमना हृष्टमानस:-अभि० ३३६९)