SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादशः सर्गः २०. कान्त ! स्वस्वामिकृत्याय , मा विषीद मनागपि । स्वर्भाणु मुखगं चन्द्रं , पश्यतो धिग् हि तारकान् ॥ वे बोलीं-'पतिदेव ! आप अपने स्वामी के कार्य के प्रति किंचित् भी विषाद न करें। क्योंकि राहु के मुख का ग्रास बने हुए चन्द्रमा को देखने वाले तारकों को धिक्कार है।' २१. नाथ ! संस्मृत्य मां चित्ते , मुखं मा वालयेनिजम् । वलमानमुखा वीरा , न भवन्ति कदाचन ॥ 'नाथ ! मन में मेरी स्मृति कर आप रणभूमि से अपना मुंह न मोड़ लें। युद्ध-भूमी से जो मुंह मोड़ते हैं वे कभी भी वीर नहीं हो सकते ।' २२. ताम्बूलीरागसंपृक्तं , यथास्यं भाति तेऽधना । .. क्षरदधिरधाराक्तं , तथा त्वं दर्शये रणे ॥ 'नाथ ! जैसे आपका मुंह अभी ताम्बूल के रंग से संपृक्त होकर शोभित हो रहा है, . वैसे ही रण में आप अपने मुंह को झरती हुई शोणित की धारा से सिक्त दिखायें।' २३. त्वविक्रान्तिर्महावीर ! , त्रैलोक्येऽपि विदित्वरी। सुधाभित्तिरिव म्लानीकार्या नाऽकोत्तिकज्जलैः ॥ 'हे महान् वीर ! आपका पराक्रम तीनों लोकों में विदित है । वह चूने से पुती हुई मौत की तरह निर्मल है । आप उसे अयश रूपी कज्जल से म्लान न कर डालें।' डालें। २४. सुमेरुस्त्वमसि स्वामिमानसे भुजवेमवैः। - त्वं तृणीभूय संग्रामान् , मुखं मा दर्शयेर्मम ॥ 'नाथ ! आप अपनी भुजाओं के पराक्रम के कारण अपने स्वामी के मन में सुमेह की भांति हैं । आप संग्राम में तिनके बनकर मुझे कभी अपना मुंह न दिखायें।' २५. भटानां पर वीरास्त्र वितान् मरणं वरम् । धिगस्तु धरतः प्राणान् , भोरूनाक्रोशकश्मलान् ॥ 'शत्रु-योद्धाओं के अस्त्रों से मर जाना वीर सुभटों के लिए जीवित रहने से अधिक श्रेष्ठ . १. स्वर्भाणुः-राहु (स्वर्भाणुस्तु विधुन्तुद:-अभि० २।३५) २. परः-शन (शत्रौ प्रतिपक्षः परो रिपुः-अभि० ३।३९२)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy