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... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
२२४ १०२. विद्याभृन्नर भिल्लेन्द्रसैन्यसंभारभारितः ।
खिन्नशेषाहिरित्यन्तर्दध्यौ शक्तोऽहमत्र न ॥
'बाहुबली की विद्याधरेन्द्रों, नरेन्द्रों और भिल्लेन्द्रों की भरी-पूरी सेनाओं के भार से बोझिल बने हुए खिन्न शेषनाग ने मन में सोचा कि यह भार उठाने के लिए मैं समर्थ नहीं हूं।'
१०३. अलंभूष्णुभुजस्थाम ! , बान्धवोऽभ्येति तेऽधुना।
षट्खण्डाखण्डल ! स्वरं , मा प्रतीक्षस्व तत्क्षणम् ।।
'हे समर्थ भुजबल वाले ! हे षट्खंड के इन्द्र महाराज भरत ! आपका भाई अभी आ रहा है। आप उस क्षण की अधिक प्रतीक्षा न करें।'
१०४. मम पृष्ठे स आयातस्तीक्ष्णांशोरिव वासरः ।
समीरस्येव पाथोदः , प्रयाणैरविलम्बितैः ॥
'हे भारतेश ! वे अविलंबित प्रयाणों से मेरे पीछे-पीछे वैसे ही आ रहे हैं जैसे सूर्य के पीछे दिन और पवन के पीछे मेघ आता है।'
१०५. इत्याकर्ण्य क्षितिपतिरयं चारवाचां प्रपञ्चं,
दध्यावेवं प्रभवति पुरा यस्य पुण्योदयो द्राक् । मामोरगपतिपुरस्तस्य भावी जयोऽत्र, प्रोद्यत्कोत्तिप्रथिमकलनातीतशुभ्रांशुधाम्नः ॥
'
महाराज भरत ने अपने गुप्तचर के वाग-विस्तार को सुनकर मन में इस प्रकार सोचा'जिस पुरुष के आगे पुण्य का उदय चलता है, जिसके देव, असुर और मनुष्य सहायक हैं, जिसकी कोत्ति उन्नत है, जो विस्तृत तथा कलनातीत शुभ्रता से चन्द्रमा के समान है, वह शीघ्र ही विजय प्राप्त कर लेता है।'
- इति चरोक्तिविन्यासवर्णनो नाम एकादशः सर्गः