________________
'एकादश: सर्ग:
"
६७. यात्रान्हि जिनमभ्यर्च्य भवानिव करीश्वरम् । श्वेतं मूर्त्तमिव श्रेयोऽध्यारुरोह विशां पतिः ||
- चतुभिः कलापकम् ।
' इस बाहुबली ने अपनी कीर्ति-सुधा से हमको धवलित किया है - यह सोचकर वाद्य-ध्वनि से मुखर दिग्मुखों ने दूर से ही बाहुबली की निःशंक रूप से स्तुति की।
जैसे मेरु पर्वत कल्पवृक्षों से अनुगत होता है वैसे ही सर्वत्र भूमी और आकाश को भरनेवाली सेना से अनुगत, छत्र, चामर तथा सुन्दर शोभास्पद हार और कुण्डल से अलंकृत तेज और ओज से भूमी पर साक्षात् इन्द्र की भांति अवतीर्ण महाराज बाहुबली यात्रा के दिन जिनेश्वर देव की अर्चा कर मूर्तिमान् श्रेय की भांति श्वेत हाथी पर उसी प्रकार बैठे जैसे आप (भरत) बैठे थे । '
£5.
स्त्रीणामालोकनोत्कण्ठाकृतव्यालोलचक्षुषाम् । शतचन्द्रान् गवाक्षान् स, ततान वदनैदिने ॥
εε.
' देखने को उत्सुक तथा अभिप्राय से चपल चक्षुवाली स्त्रियों के वदनों से बाहुबली ने दिन में भी वातायनों को शतचन्द्र बना दिया ।'
निर्ययौ नगरात्तूर्णं, कन्दरादिव केशरी । एकोप्यजेय एवायं सुरैरिति वितर्कितः ॥
"
'जैसे केशरीसिंह अपनी गुफा से बाहर निकलता है वैसे ही वह नगर से शीघ्र ही बाहर निकला । यह देख देवों ने यह वितर्कणा की कि यह अकेला भी अजेय है ।'
१०० त्वं जेता विश्वविश्वस्य न त्वां जेष्यति कोऽपि च ।
"
इत्यस्य शुभशंसोनि, शकुनान्यभवंस्ततः ॥
२२३
'तुम संपूर्ण विश्व के विजेता हो । कोई भी तुम्हें जीत नहीं सकेगा' - इस प्रकार उनको अनेक शुभ सूचना वाले शकुन हुए ।
१०१. सैन्याश्वखुरतालोद्यत्स्थानेऽभूदन्तरा रजः ।
तेजो स मयाप्यस्य रविरित्यवहन् मुदम् ॥
"
सेना के घोड़ों की खुरताल से उठती हुई रजें आकाश के अन्तराल में छा गईं । 'अब मैं इस बाहुबली का तेज सहन कर सकूंगा' – यह सोचकर सूर्य ने प्रसन्नता का अनुभव किया ।