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... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ६०. भवान् बली यद्यपि सार्वभौमं , विजेतुमभ्युत्सहतेऽवलेपात् ।
मदोत्कटोऽपि द्विरदाधिराजः , किं दन्तघातैर्व्यथते सुमेरुम्॥
यद्यपि आप बलवान् हैं और अहंकार के वशीभूत होकर चक्रवर्ती को जीतने के लिए उत्सुक हो रहे हैं किन्तु क्या मदोन्मत्त हस्तिराज अपने दन्तावलि के घातों से सुमेरु को व्यथित कर सकता है ? कभी नहीं।
६१. क्व सर्वदेशाधिपतिः स चक्री , त्वमेकदेशाधिपतिन पः क्व ? ...
महानपि द्योतयते हि दीपो , गृहं जगद्योतकरोऽत्र भानुः ॥ ..
कहां तो सभी देशों के अधिपति वे चक्रवर्ती भरत और कहां आप एक देश के अधिपति राजा ? दीपक कितना भी बड़ा हो, वह एक ही घर को प्रकाशित करता है किन्तु सारे जगत् को उद्योतित करने वाला तो सूर्य ही है।
६२. किं राजराजोपि च यक्षलक्ष्म्याः ,, संसेव्यमानोऽपि निधीश्वरोपि।।
श्रीदोपि नो तस्य तुलां करोमि , विश्वेश्वरस्याप्यहमुत्तरेशः ॥ ६३. वितयं चित्तान्तरिति प्रणष्टः , कैलासदुर्ग समुपेत्य दूरम् । वस्वोकसाराधिपति निलीनो , मनस्विभिः स्वं हि.बलं विचार्यम् ॥
-युग्मम् ।
'क्या हुआ यदि मैं यक्षों का अधिपति, निधियों का ईश्वर और लक्ष्मी को देने वाला हूँ, फिर भी मैं केवल उत्तर दिशा का.स्वामी मात्र होने के कारण इस विश्वेश्वर भरत की तुलना में नहीं आ सकता'--अन्तर् चित्त में ऐसी तर्कणा कर अलकापुरी का स्वामी कुबेर भाग कर कैलाश दुर्ग में आया और कहीं दूर जाकर छिप गया। क्योंकि मनस्वी व्यक्ति को अपनी शक्ति का विचार करना ही चाहिए।
१४. सिंहासनाधं किल वज्रपाणिर्यस्मै प्रबन्धेन दिदासिता हि ।।
मर्येष्वम]ष्वपि तस्य वैरी , खपुष्पवन्नव विभावनीयः ॥
जिस भरत चक्रवर्ती को इन्द्र भी मादर के साथ अपना आधा सिंहासन देना चाहता है, उसके मनुष्यों और देवों में भी आकाशकुसुम की भांति कोई भी शत्रु नहीं है।
६५. तत् त्वं विहाय स्मयमप्यशेषं , ज्येष्ठं किल भ्रातरमेहि नन्तुम् ।
न कापि लज्जा भवतोस्य नत्या , ज्येष्ठो हि बन्धुः पितृवत् प्रसाद्यः ॥
१. वस्वोकसारा-अलकापुरी (अलका वस्वोकसारा-अभि० २।१०५)