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द्वितीयः सर्गः
८५. इती रिणं तीरितराज्यभारो, राजानमूचे सचिवोऽथ नत्वा ।
नरेन्द्र ! सर्व स्वयमेव वेत्सि , विश्वंभरा' हि क्वचिदस्तिवीरा ॥
इस प्रकार पूछे जाने पर, राज्य-भार का पार पाने वाले सचिव ने राजा से निवेदन किया 'नरेन्द्र ! आप स्वयं सब कुछ जानते हैं। क्योंकि इस पृथ्वी पर आज कहीं-कहीं वीर विद्यमान हैं।'
८६. तदा भवान् मंत्रिभिरोदितस्तद् , भवत्समीपं प्रहितोस्मि राजन् !
तवापि तस्यापि हितं वचोऽहं , भाषे चिरं तेऽभिमुखं त्विदानीम् ॥
राजन् ! उस समय भरत के आग्रह पर मंत्रियों ने आपका नाम बताया । इसलिए भरत चक्रवर्ती ने मुझे आपके पास भेजा है। मैं आपके सम्मुख आपके और उनके चिर-हित के लिए कुछ कह रहा हूँ। .
८७. भवाँस्तुलां तस्य रथाङ्गपाणेर्न काञ्चिदारोहति शौर्यसिन्धुः ।
निम्नोऽतिदीर्घः सरसीवरः किं , पाथोनिर्याति कियन्तमंशम् ॥
आप शौर्य के समुद्र हैं किन्तु चक्रवर्ती भरत की किसी भी तुलना में नहीं आ सकते । क्योंकि अंडा और अतिविशाल तालाब समुद्र के कितने अंश की तुलना में आ सकता है ?
१८. भ्राता मदीयोयमिति स्वचित्ते , निश्चिन्ततामावहसे यदत्र ।
युक्तं न तत् ते क्षितिराट् ! सुखाय , न संस्तवो हि क्षितिवल्लभेषु ॥
आप अपने मन में यह सोचकर निश्चिन्त हैं कि भरत तो मेरा भाई है। राजन् ! किन्तु आपके लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है । क्योंकि राजाओं के साथ परिचय करना सुखद नहीं होता।
८६. त्वन्मौलिकालायस'सञ्चयोत्र , कठोरतां गच्छति मार्दवं न ।
तस्य प्रतापाग्निभरेण भावी , मृदुत्वभाक् चक्रघनाभिघातः ॥
आपके मुकुट का लोह-संचय कठोर हो रहा है, मृदु नहीं । राजन् ! भरत की प्रतापाग्नि के भार और उनके चक्रघन के अभिघात से वह कोमल हो जाएगा।
१. विश्वंभरा-पृथ्वी (विश्वा विश्वंभरा धरा-अभि० ४।१) २. रोदित:-उक्तः। ३. कालायसं-लोह (लोहं कालायसं शस्त्रं-अभि० ४।१०३)