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. . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् भाइयों के पुत्र भरत का आधिपत्य स्वीकार कर नत हो गए। उनको भरत ने छीना हुआ पैतृक राज्य पुनः सौंप दिया। क्योंकि उत्तम व्यक्तियों के क्रोध की अवधि प्रणाम न करने तक और अधम व्यक्तियों के क्रोध की अवधि जीवन पर्यन्त होती है।
८१. अथान्यदा भालनियुक्तपाणिद्वयाम्बुजः शस्त्रनिवास रक्षी।
. द्वात्रिंशता भूमिभुजां सहस्र निषेप्यमानं नृपमित्युवाच ॥
अब बत्तीस हजार राजे भरत की सेवा करने लगे। एक बार शस्त्रागार का रक्षक अपने जुड़े हुए दोनों हाथों को भाल पर रखते हुए चक्रवर्ती भरत से बोला
८२. देव ! त्वदस्त्रालयमुग्रतेजो , 'रथाङ्गमायाति न देवसेव्यम् ।
भीरोमनः शौर्यमिवास्वगेहं' , निधानवद्दानमिवातिदीनम् ।।
'देव ! अत्यन्त तेजस्वी और देव-सेव्य वह चक्र आपके शस्त्रागार में प्रवेश नहीं कर रहा है, जैसे भयभीत मन में शौर्य, दरिद्र के घर में निधान और अतिदीन में दान प्रवेश नहीं करता।
८३. राजेन्द्र ! तं हेतुमहं तु जाने , यन्नो तदायाति न शस्त्रधाम ।
शुभाशुभं क्षोणिभुजे निवेद्यं , नियोगिभित्मिनरा हि ते स्युः॥
'राजेन्द्र ! वह चक्र शस्त्रागार में प्रवेश नहीं कर रहा है, इसका हेतु मैं नहीं जानता किन्तु कर्म-सचिवों को चाहिए कि वे शुभ या अशुभ जो कुछ भी हो, राजा को बता दें। क्योंकि वे उसके आत्मीय-जन होते हैं।
८४. आकर्ण्य तां तस्य सरस्वती स , जगाद चित्तोन्नति गर्भवाक्यम् ।
अखण्डषट्खण्डमहीधरेषु , प्रोच्चैःशिराः कोप्यविलङ घ्यशक्तिः ॥
उसकी बात सुनकर भरत ने दर्पभरी वाणी में कहा-'सम्पूर्ण छह खण्डों के राजाओं में ऐसा कौन अनुल्लंघ्यशक्ति सम्पन्न राजा है, जो ऊंचा शिर किए हुए है ?
१. रथाङ्ग-चक्र (रथाङ्ग रथपादोऽरि चक्रं—अभि० ३।४१९) २. अस्वगेहं-दरिद्रगेहं। ३. क्षोणिभुजे–क्षोणि-पृथ्वी भुङ्क्ते इति क्षोणिभुक्-राजा, तस्मैन ४. नियोगी-कर्म-सचिव (सहायक मंत्री) (नियोगी कर्मसचिव:-अभि० ३।३८३) ५. चित्तोन्नतिः-अहंकार (मानश्चित्तोन्नतिः स्मयः-अभि० २।२३१)