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१.
त्रयोदशः सर्गः
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उपेत्य तौ विन्ध्यहिमाद्रिसन्निभौ परिस्फुरत्केतनकाननाञ्चिती । दिनात्ययेऽनुत्रिदशा पगातटं ततो निवेशं बलयोवितेनतुः ॥
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विन्ध्य और हिमालय पर्वत के सदृश तथा फहराती हुई ध्वजाओं रूपी कानन से युक्त बाहुबली और भरत — दोनों सायंकाल के समय गंगा के तट पर आये । वहाँ उन्होंने अपनी-अपनी सेनाओं का पड़ाव डाला ।
२. सुरासुरेन्द्राविव मत्तमत्सरी, दिनेशचन्द्राविव दीप्रतेजसा । न्यषीदतां स्वर्गनदीतटान्तिके, पताकिनी प्लावितभूतलाविमो ॥
४.
वे दोनों सुरेन्द्र और असुरेन्द्र की भाँति मत्त और मत्सरी तथा सूर्य और चन्द्रमा की भाँति प्रचण्ड तेजस्वी थे। दोनों अपनी-अपनी सेनाओं से भूतल को आप्लावित करते हुए गंगा नदी के तट के समीप ठहर गए ।
अवाचयेतामिति वेत्रपाणिभिः, स्वसैनिकांस्तौ भविता श्व आहवः । 'तदत्र सज्जा भवत प्रभूदितैर्गजाः प्रणुन्ना इव कर्कशाङ्कुशैः ॥
दोनों राजाओं ने अपने सैनिकों को प्रहरी के द्वारा यह कहलाया कि कल युद्ध प्रारम्भ होने वाला है, अत: सब सैनिक स्वामी की आज्ञा से सज्जित हो जाएँ, जैसे कर्कश अंकुश से प्रेरित हाथी युद्ध के लिए तैयार होते हैं ।
गिरं मटा वेत्रभृतां निपीय ते, मुदं परां प्रापुरिति स्वचेतसि । उपस्थितो नः समरोत्सवश्चिराद्, रथाङ्गनाम्नामिव भारकरोदयः ॥
प्रहरियों से युद्ध की बात सुनकर वे सभी सुभट मन में यह सोचकर बहुत प्रसन्न हुए कि आज यह युद्धोत्सव हमें चिरकाल से प्राप्त हुआ है जैसे चकवों के लिए सूर्य का
उदय ।