________________
२४६
... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५. प्रसह्य केचित् कुलदेवतामगुः , प्रसूनगोशीर्षफलाकृता'ञ्चिताः ।
सुता इवाम्बां समिते प्रयोजने , स्मरन्ति चार्चन्ति हि नाकवासिनः॥
कुछ सुभट फूल, गोशीर्षचन्दन और फल की सज्जा से युक्त होकर शीघ्र ही अपने कुलदेवता के पास गए। जैसे किसी प्रयोजन के उपस्थित होने पर पुत्र अपनी माँ की स्मृति और पूजा करते हैं वैसे ही कार्यवश व्यक्ति देवताओं की स्मृति और पूजा करते हैं।
६. पुरः सुरं केऽपि जयं ययाचिरे , व्यधुश्च केप्यायुधचर्चनं भटाः ।
निजान्वयो पेतमधुर्जपञ्च के , हयस्य नीराजन'मादधुश्च के ॥
कुछ सुभटों ने देवताओं के आगे विजय की याचना की और कुछ ने अपने अस्त्रों की पूजा की। कुछ सुभट अपने-अपने वंशगत जाप करने लगे और कुछ ने घोड़ों का नीराजन-युद्धपूर्वीय पूजन किया।
७. युगादिदेवं हृदि केपि संदधुर्जयावहान् केपि सुरांश्च सस्मरुः ।
हुति च केपि ज्वलने व्यधुस्तरां , शकुन्तवाचं जगहुश्च केचन ॥
कुछ ने ऋषभदेव को हृदय में धारण किया; कुछ ने जयप्रदान करने वाले देवों का स्मरण किया; कुछ ने अग्नि में आहुतियाँ दी और कुछ ने शकुन रूप में पक्षियों की वाणी को ग्रहण किया।
क. ततः परं तक्षशिलाक्षितीश्वरो , रणं विनिश्चित्य निशामुखे नृपान् ।
अजूहवद् वेत्रिगिरा च नन्दनान्नितान्तवासी विनयो गुणानिव ॥
उसके बाद तक्षशिला के स्वामी बाहुबली ने युद्ध का निश्चय कर सायंकाल ही प्रहरी को भेजकर राजाओं और अपने पुत्रों को बुला भेजा। जैसे निरन्तर पास में रहने वाला विनय गुणों को आमन्त्रित करता है।
उवाच तेभ्यस्त्विति धैर्यमेदुरं , वचोऽनुजः श्रीभरतस्य भूपतेः । विलोक्य षट्खण्डपतेर्बलं महन्नृपा ! भवद्भिर्न हि कम्प्यमाहवे ॥
महाराज भरत के अनुज बाहुबली ने अति धीर और स्नेहित वाणी में उनको सम्बोधित
१. आकृत:-सज्जित । २. अन्वयः-वंश (अन्वयो जननं वंशः- अभि० ३।१६७) ३. नीराजनं-युद्धपूर्वीय पूजन ।