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________________ त्रयोदशः सर्गः २४७ कर कहा-'राजाओ ! आप लोग चक्रवर्ती की महान् सेना को देखकर युद्ध-क्षेत्र में कम्पित मत हो जाना। १०. महारणोऽधर एष दुर्गमश्चरिष्णुकण्ठीरवनादभीषणः। समुच्छलच्चक्रदवानलज्वलत्प्रभाप्रतप्ताखिलवीरभूरुहः ॥ 'यह भरत महान् रण रूपी पर्वत के समान है। यह दुर्गम और चारों ओर गूंजनेवाले सिंहनादों से भीषण है। इसने उछलती हुई चक्र की ज्वालाओं की तप्त प्रभा से सम्पूर्ण वीर सुभट रूपी वृक्षों को संतप्त कर डाला है।' ११. अयं समादाय बलं त्वमदृशं , समागतो योधयितुं प्रसह्य माम् । ततो न हेया सहचारिधीरता , जयः कलौ धैर्यवता हि सम्भवेत् ॥ 'यह भरत इस प्रकार की सेना को लेकर युद्ध करने के लिए सहसा मेरे सामने आ पहुँचा है । इसलिए हमें अपने सहचारी धैर्य को नहीं खोना है। क्योंकि युद्ध में जय उन्हें ही प्राप्त होती है जो धैर्यशाली होते हैं।' १२. भटास्तदीयाः कलिकर्मकर्मठा , भवद्भिरालोकि रणो न कुत्रचित् । . रणप्रवृत्तिह दयङ्गमा यतो , भवेद् दविष्ठव' न चात्मवर्तिनी ॥ 'भरत के सुभट युद्ध करने में कर्मठ हैं। आपने कहीं युद्ध देखा नहीं है। क्योंकि युद्ध की प्रवृत्ति दूसरे के साथ लड़ने से ही हृदयंगम होती है, अपने आप हृदयंगम नहीं होती।' १३. सुलोचनानां मुखमेव मोहने , न सङ्गरे वीरमुखं व्यलोक्यत । · भदा ! भवन्तः कुचकुम्भदिनः , करीन्द्रकुम्भस्थलपातिनो न वा ॥ 'सुभटो ! आपने रति-काल में स्त्रियों का मुख ही देखा है किन्तु युद्ध में वीरों का मुख नहीं देखा । आप सब स्त्रियों के स्तन रूपी कलशों का मर्दन करने वाले हैं, किन्तु हाथियों के कुम्भस्थल का मर्दन करने वाले नहीं हैं ।' १४. सुता मदीया अपि च स्तनन्धया , विदन्ति नो सङ्गरभूमिचारिताम् । .. अमीभिराप्यो विजयः कथं कलौ , खपुष्पवत् प्रौढिमतां हि सिद्धयः । 'मेरे पुत्र भी छोटे हैं। वे युद्ध-भूमी के आचरण को नहीं जानते । वे युद्ध में आकाश-कुसुम १. दविष्ठा-दूरस्थिता-अपरसंबद्धेति तात्पर्यम् । २. प्रौढिमान्-उद्यमशील (प्रौढिरुद्योगः कियदेतिका-अभि० २।२१४)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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