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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् की भाँति विजय को कैसे पा सकते हैं ? क्योकि सफलता उनको मिलती है जो उद्यमशील होते हैं।'
१५. ततोहमेकोऽपि बलोत्कटं त्वम , प्रश्यन श्रयेयं विजयं रणाङ्गणे।
प्रदीप एकोऽपि तमो न हन्ति किं , घनाञ्जनाभं वसतेः समन्ततः ?
'इसलिए इस रण-भूमी में पराक्रमी भरत को मैं अकेला ही नष्ट कर विजय पा लूंगा।' क्या अकेला दीपक घर में चारों ओर छाये हुए, अंजन की आभा वाले, सघन अंधकार को नष्ट नहीं कर देता ?'
१६. पुरो मम स्थाष्णुरयं बलस्मयाद् , युगादिदेवस्य सुतत्वतः पुनः । ..
__ युधि प्रवीराः किमु पैत्रिकं कुलं , मनागपीह त्रपयन्ति भङ्गतः ? - . .
'यह भरत अपनी शक्ति के गर्व से तथा ऋषभदेव के पुत्र होने के कारणं युद्ध में मेरे सामने टिका रह सकेगा । क्या कोई वीर पुरुष युद्ध में अपने आपको अस्थिर कर अपने पत्रिक कुल को किंचित् भी लज्जित करता है ? कभी नहीं।
१७. अमुष्य चक्रं विबुधैरधिष्ठितं , पराक्रमेणव , भुजद्वयञ्च मे ।
द्वयोरपि व्यक्तिरनीकसङ्गमे , भविष्यति व्यक्तधियोरिवागमे ॥
'भरत का चक्र देवताओं द्वारा अधिष्ठित है और मेरा बाहु-युगल पराक्रम से अधिष्ठित है । संग्राम में जब हमारा संगम होगा तब दोनों की अभिव्यक्ति होगी, जैसे दो विद्वान् व्यक्तियों की अभिव्यक्ति शास्त्रार्थ में होती है।'
१८. महत्तरस्यापि घटस्य संस्थितिर्भवेल्लघोरश्मन एव निश्चयात् ।
तथा मदेव क्षयमाप्स्यति ध्रुवं , नृपोयमुच्चैर्भवितव्यतैव हि ।।
'बड़े से बड़े घड़े का विनाश एक छोटे से कंकर से निश्चित रूप से हो जाता है । इसी प्रकार महाराज भरत भी निश्चित रूप से मेरे से विनाश को प्राप्त होगा। यह कोई बड़ी भवितव्यता ही है।'
१६. अतोनुजानीत रणाय मां नपा ! , हृदापि नो संशयनीयमञ्जसा ।
. अयं ससैन्योपि समेतु मे पुरः , समुत्सहे बाहुपरिच्छदोप्यहम् ॥
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'राजाओं ! इसीलिए आप मुझे रण में जाने की शीघ्र अनुज्ञा दें। आप अपने हृदय में