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त्रयोदशः सर्गः
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संशय को स्थान न दें । भरत अपनी सेना के साथ मेरे सामने भले ही आएँ, मैं उसे अपनी इन भुजाओं के परिवार से ही सहन कर लूंगा ।'
२०.
इस प्रकार बाहुबली ने युद्धोत्साह के रस से छलाछल, रोमांचित करनेवाली और प्रचण्ड धैर्य से युक्त वाणी द्वारा अपने पुत्र महारथ और सिंहरथ को युद्ध के लिए प्रेरित किया । पिता की वाणी सुन अत्यन्त विस्मित होकर सिंहरथ ने कहा
२१.
२२.
अथाहवोत्साह र सोच्छलच्छिरोरुहप्ररूढोद्धतधैर्यवर्यया । महारथ: सिंहरथः पितुगिरा, त्वितीरितो व्याहरतिस्म सस्मयम् ॥
'पिता जी ! आपने यह उचित नहीं कहा । आपके समक्ष आपके अनेक पुत्र युद्ध के लिए तैयार हैं। शत्रुओं के कवचों का हरण करनेवाले ये भूपाल आपके सामने बैठे हैं । युद्ध के लिए ये केवल आपकी ही आज्ञा चाहते हैं ।
२३.
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इदं भवद्भिर्न हि युक्तमीरितं यतोप्यनेके तनयास्तवाग्रतः । अमी स्थिता वहराः क्षितिश्वरा, रणाय वांछन्ति तवैव शासनम् ॥
'देव ! आपकी ये दोनों भुजायें इन्द्र को जीतने में प्रसिद्ध हैं, फिर मनुष्य की बात ही क्या ? इन पुत्रों के होते हुए भी यदि पिता स्वयं युद्ध में जाए तो क्या यह हमारे लिए लज्जास्पद बात नहीं है ?
२४.
विदित्वरी देव ! भवद्भुजद्वयी, जयाय जिष्णोरपि नुश्च' का कथा । अमीषु स्वङ्गषु यत् पिता, स्वयं विगृह्णाति किमु हिये न तत्
?
क्षितीश्वरे पृष्ठमधिष्ठिते भटा, रणागतान् यच्च जयन्ति विद्विषः । प्रभो महत्त्वाय तदेव सांप्रतं, दुरुत्तरोम्भोनिधिरूमभिर्यतः ॥
'राजा द्वारा पीठ थपथपाए जाने पर वे सुभट युद्ध में आये हुए शत्रु- सुभटों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । स्वामी के महत्त्व के लिए यही उचित है। क्योंकि ऊर्मियों के कारण ही समुद्र दुरुत्तर होता है ।'
विलोकतां नः समरं तथाविधं, पिता स्वचित्ते च बिभर्तु संमदम् । यहा' वैरिबलापनोदिनः स एव तातो जगतीह कीर्तिमान् ॥
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१. नुः - मनुष्यस्य ।
२. उद्वहः - पुत्र ( उद्वहोङ्गात्मजः सूनुः - अभि० ३।२०६ )