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प्रथमः सर्गः
१५. प्रफुल्लकंकेल्लिनवीनपल्लवै - रमुष्य सायंतनवारिदभ्रमम् ।
वनं क्वचित् श्यामलताभिरञ्चितं , दिनेपि दोषाभ्रममादधे पुनः ॥ विकसित अशोक के नए पत्तों को देखकर दूत के मन में सायंकालीन बादलों का भ्रम उत्पन्न हुआ और कहीं-कहीं वह वन श्यामलता से व्याप्त होने के कारण दिन में भी रात्री का भ्रम पैदा कर रहा था ।
१६. जनाद् बलं बाहुबले टैः पथि , द्रुमेषु भूभृत्सु च चिन्हितं चरः ।
भुजाशुगा स्त्रैः परिपीय कंपितः , सकण्टका एव हि दुर्गमा द्रुमाः ॥
प्रत्येक मार्ग में वृक्ष और पर्वत पर बाहुबली के सैनिकों का पराक्रम बाहु, बाण और अस्त्रों द्वारा चिन्हित था। लोगों से उसकी गाथाएं सुनकर दूत कांप उठा । क्योंकि काँटेवाले वृक्ष ही दुर्गम होते हैं । १७. भुजद्वयोन्मूलितभूरुहावलि , निभाल्य कि हस्तिभिराहतेति तम् ?
वदन्तमूचे जनतेत्यसौ भट - रभजि नः साकमरातिकांक्षितैः ॥
दोनों भुजाओं द्वारा उखाड़ी हुई वृक्षावलि को देखकर दूत ने पूछा-'क्या इन वृक्षों को हाथियों ने उखाड़ा है ?' यह सुनकर जनसमूह ने कहा-'नहीं, हमारे वीर सुभटों ने शत्रुओं की आकांक्षा के साथ-साथ इस वृक्षावलि को भी उखाड़ फेंका है।' १८. सुधारसस्वादुफलानि नो भटः , करानवापानि विमश्य मुष्टिभिः ।
हतद्र मस्कन्धनिपातितान्यधो, विलोकय त्वं किमसाध्यमुद्भटैः ?
जनता ने कहा-'दूत ! हमारे सुभटों ने जब यह सोचा कि वृक्षों पर लदे अमृत सरीखे मीठे फल ऊंचे हाथ से भी प्राप्त नहीं हो रहे हैं तब उन्होंने वृक्ष के स्कंध पर मुष्टि-प्रहार किया और फल भूमि पर आ गिरे। तुम देखो, ये फल नीचे पड़े हुए हैं। प्रबल पराक्रमी के लिए क्या असाध्य है ? कुछ भी नहीं ।
१६. हतेभकुम्भस्थलजन्ममौक्तिक - रिह प्रियावक्षसि हारमादधः।
भटा यशोन्यासमिवौजसां क्षिता - वितस्तदुत्खातरदान निभालय ॥ दूत ! हमारे वीरों ने हाथियों के कुंभस्थलों को विदारित कर, उसमें से निकले हुए मोतियों से हार बनाकर अपनी प्रियाओं की छाती पर धारण करवाया है, मानो
१. आशुगः --बाण (काण्डाशुगप्रदरसायकपत्रवाहाः --- अभि० ३।४४२) २. परिपीय-आकर्ण य । ३. अरातिः -शत्रु (प्रत्यर्थ्यमित्रावभिमात्यराती-अभि० ३।३६३)