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________________ ० प्रथम सर्ग की पंजिका के अंत में निम्न श्लोक है-- 'इत्थं श्रीकविसोमसोमकुशलाल्लब्धप्रसादस्य मे, श्रीनाभिक्षितिराजसूनुतनयश्लोकप्रथा पंजिका । नैपुण्यव्यवसायिपुण्यकुशलस्यास्यारविदोद्गता, सवृतोल्लसदक्षरार्थकथिनी विश्वावदास्तां चिरम् ॥' इसके तृतीय चरण का 'आस्यारविन्दोद्गता'-यह वाक्य यदि शुद्ध है तो यह पंजिका 'पुण्यकुशलगणि' की ही कृति होनी चाहिए। किन्तु 'नैपुण्यव्यवसायि' और 'आस्यारविन्दोद्गता'-ये दोनों वाक्य श्लाघासूचक है। कवि अपने स्वयं के लिए श्लाघासूचक वाक्यों का प्रयोग कैसे कर सकता है ? इस तर्क के आधार पर यदि पंजिका को अन्यकर्तृक माना जाए तो 'आस्यारविन्दोद्गता' के स्थान पर 'आस्यारविन्दोद्गतः' पाठ होना चाहिए । यह 'सवृत्त' का विशेषण होकर ही यथार्थ अर्थ दे सकता है, अन्यथा नही । पंजिकाकार सोमकुशलगणि का शिष्य हैं, यह ऊपर उद्धृत श्लोक से स्पष्ट है। कनककुशलगणि ने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी—यह पहले बताया जा चुका है। संभव है उन्होंने या उनके किसी गुरु-भाई ने पंजिका का निर्माण किया है। काव्य की प्रति-प्राप्ति का इतिहास.. तेरापंथ के पंचम आचार्य श्री मघवागणि के शासनकाल में तेरापंथ संघ में प्रस्तुत काव्य की पंजिकायुक्त एक हस्तलिखित प्रति थी। मघवागणि संस्कृत के प्रवर विद्वान् थे। वे परिषद् में प्रस्तुत काव्य . का वाचन करते थे। अतः यह बहुत लोकप्रिय हो गया। एक साधु संघ से अलग हुआ। वह प्रस्तुत काव्य की प्रति को अपने साथ ले गया। पता चलने पर उसकी खोज की गई तो उसके ४३ पत्र मिले, शेष कहीं खो गए। पूज्य प्रवर कालूगणी ने उस काव्य की खोज की। पर कहीं कोई प्रति नहीं मिली। मघवागणी का आकर्षण कालूगणी में संक्रान्त था और कालूगणी का आकर्षण आचार्य तुलसीगणी में संक्रान्त था। आचार्य तुलसी ने भी इसकी खोज चालू रखी । तेरापंथी महासभा के मंत्री, विद्वान् श्रावक स्व० श्री छोगमल जी चोपड़ा ने एक दिन सूचना दी कि प्रस्तुत काव्य की एक प्रति आगरा के 'विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमन्दिर' नामक जैन पुस्तकालय में प्राप्त है। इस सूचना से एक संतोष का अनुभव हुआ। चोपड़ाजी ने उस पुस्तकालय की प्रति से एक प्रतिलिपि करवाई। वह बहुत अशुद्ध थी, इसलिए दूसरी बार उसकी प्रतिलिपि करवाई। वह भी बहुत अशुद्ध थी। आचार्यश्री ने उसका संशोधन कर एक प्रति तैयार करने का मुझे आदेश दिया। यह वि० सं० २००२ की बात है। उस समय हमारा मर्यादा-महोत्सवकालीन माघमासिय प्रवास सरदारशहर में था। मैंने हमारे संघ की प्रति और आगरा के
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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