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द्वितीयः सर्गः
२७ भरत को मैंने उठाकर सहसा अाकाश में उछाल दिया और नीचे गिरते हुए उसको झेल लिया। , १०. श्रीतातहंसेन' शमंगतेन', विदूरमुक्तास्त्ररुचा पदे स्वे ।
न्यधायि यो वन्हिरिवोरतेजास्तस्यास्ति कच्चिद्' भरतस्य भद्रम् ॥ मेरे पिताश्री शस्त्रों को दूर छोड़कर मुनि बन गए। उन्होंने अग्नि की तरह विस्तृत तेजवाले भरत को अपने पद पर नियुक्त किया। दूत ! क्या उस भरत के कुशल-क्षेम है ? ११. न्यवेशि तातेन भुजेऽस्य लक्ष्मीः , सत्क्षेत्रभूम्यामिव सस्यराजिः ।
या शात्रवावग्रहशक्तिनाशात् , सा नीतिवृष्ट्या ववृधेऽधुनास्मात् ॥ पिताश्री ने भरत की भुजाओं पर राज्यलक्ष्मी का भार उसी प्रकार रखा जिस प्रकार उपजाऊ भूमी में धान्य की राशि निविष्ट होती है। राज्य-लक्ष्मी शत्रुरूपी दुर्भिक्ष की शक्ति का नाश कर भरत की नीति रूपी वृष्टि से पोष पाकर बढ़ने लगी। १२. परस्परामावहतोरपीहां , समानसौहार्दयुषोरपीह ।
अथान्तरे नौ पतितो विदेशः , प्रेमायोर्नक्रमिवान्तरक्ष्णोः ॥
हम दोनों में परस्पर प्रेम और समाम सौहार्द है। परन्तु क्या करें, हम दोनों के बीच विदेश—देशान्तर आ गया है, जिस प्रकार प्रेम से भीगी हुई आंखों के बीच नाक आ जाता है।
१३. पुरा चर! भ्रातरमन्तरेण , शशाक न स्थातुमहं मुहूर्तम् ।
ममाऽधुनोपोष्यत एव दृष्ट्या , व्यस्ततो मे दिवसाः प्रयान्ति ॥ दूत ! पहले मैं भाई के बिना मुहर्त भर भी नहीं रह सकता था। किन्तु आज मेरी आंखें उपवास कर रही हैं-उसे देख नहीं पा रही हैं। इसलिए मेरे ये दिन व्यर्थ बीत रहे हैं। १४. सा प्रोतिरङ्गीक्रियते मया नो , जायेत यस्यां किल विप्रयोगः ।
जिजीविवा वा यदि विप्रयुक्तौ , प्रीतिर्न रीतिहि विभावनीया ।।
१. श्रीतातहंसेन–श्रीवृषभस्वामिसूर्येण । २. शमंगतेन-शान्तिप्राप्तेन । ३. कच्चिद्-कुशलक्षेम (कच्चिदिष्टपरिप्रश्ने-अभि० ६।१७६) ४. जिजीविव–इत्यत्र जीव'प्राणधारणे धातोः णबादि प्रत्ययस्य उत्तमपुरुषस्य द्विवचनम् ।