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भरत बाहुबलिमहाकाव्यम्
मैं उस प्रीति को स्वीकार नहीं करता जिसमें विरह होता हो । यदि हम वियुक्त होकर भी जी रहे हैं तो इसे प्रोति नहीं रीति ही समझना चाहिए ।
१५.
२८
हृत्क्षेत्रभूम्यां परिवापमेतै' नौं प्रीतिबीजः शतधा विवृद्धम् । अन्योन्यसंपर्क पयोदवृष्ट्या त्ववग्रहों त्रास्ति विदेश एव ॥
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हृदयरूपी खेत की खेती में बोए हुए : मेघ की वृष्टि से शतगुणित हुए हैं ( अकाल ) की तरह सामने आ रहा है ।
१६.
हम दोनों के प्रेम-बीज एक दूसरे के सम्पर्करूपी किन्तु आज विदेश ही हमारे बीच अवग्रह - - सूखे
१८.
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तत् तत् पितुर्लालनमप्यशेषं ता बाललीलाः सह बान्धवैश्च । स्मृत्वा मनो मे स्वयमेव शान्ति, याति द्विपस्येव नगाहृतस्य ॥
- इस प्रकार माता-पिता का सम्पूर्ण लालन-पालन और भाइयों के साथ की हुई बाललीलाओं का स्मरण कर मेरा मन स्वयं उसी प्रकार शान्त हो जाता है जिस प्रकार पर्वत से लाया हुआ हाथी शान्त हो जाता है ।
१७.
श्री तातपादाब्ज रजः पवित्रीकृता जितस्वर्नगरै कलक्ष्म्यः ।
मनोभिनन्दन्ति पुरीप्रदेशा: कलाधरस्येवर कराइचकोरम् ॥
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दूत ! अयोध्या नगरी के प्रदेश पिताश्री के चरण कमलों की रजों से पवित्र हुए हैं । उन प्रदेशों ने स्वर्ग के नगरों के ऐश्वर्य को भी जीत लिया है। जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणें चकोर को आनन्दित करती हैं, उसी प्रकार वे प्रदेश मेरे मन को आनन्दित करते हैं।
न मादृशी क्वापि पुरी जगत्यामिति स्मयाद् या वलयं बिर्भात । कल्याण' साल च्छलत स्त्विदानीं सा तादृगेवास्ति पुरी शिवाढ्या ? ||
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अयोध्या नगरी अपने चारों ओर के स्वर्ण- प्राकारों के मिष से यह गर्व करती हुई वलय धारण कर रही है कि विश्व में कहीं भी मेरे जैसी सुंदर नगरी नहीं है । दूत ! क्या वह नगरी आज भी उसी रूप में मंगल से परिपूर्ण है ?
१. परिवापमेतैः — बीज - संतति को बढ़ाने वाले - ( बीजसंतानमेतैः प्राप्तः – पञ्जिका पत्र ७)
२. श्रवग्रहः—सूखा, अकाल (तद्विघ्ने ग्राहग्रहाववात् — अभि० २५० )
३. कलाधरः - चन्द्रमा ( अभि० २।१६ )
४. कल्याणं – स्वर्ण (कल्याणं कनकं – अभि० ४।१०६ )
५. साल:- प्राकार ( प्राकारो वरण: साले - अभि० ४।४६ )