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द्वितीयः सर्गः
१६. नितान्तबन्धुप्रणयप्नदीपो निरन्तरस्नेहभराद् बिभत्त ।
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तेजस्तमोहारि चरिष्णु दिक्षु, मातः परं भूदिह खेदवातः ॥
भाइयों का प्रेम- दीप निरन्तर स्नेह (तैल) राशि से भरा रहता है । उसका प्रकाश तम का नाश करनेवाला और चारों दिशाओं में फैलनेवाला होता है । अब आगे उस प्रेम-दीपको खेद की हवा न लगे - यह मैं चाहता हूं ।
२०.
नीतोहमिन्द्रत्वमहं त्विदानीं तातेन नैतुं विभवाम्ययोध्याम् । सोत्कंठमेतद् हृदयं ममास्ते रथाङ्गनाम्नोरिव ही रजन्याम् ॥
२१.
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पिताश्री ने मुझे स्वतन्त्र रूप से राजा बनाया है, इसलिए मैं अयोध्या जा] नहीं सकता । मेरा यह हृदय वहाँ जाने के लिए वैसे ही उत्कंठित है जैसे रात के समय चकवा चकवी से मिलने के लिए उत्कंठित रहता है ।
fक दूत ! साकूतमिहागतीसि., कि वा मम भ्रातुररिर्बलाढ्यः । शक्तोऽपि दावाग्निररण्यदाहे ; सारथ्य' मीहेत समीरणस्य ॥
दूत ! क्या तुम किसी प्रयोजन से यहां आए हो अथवा मेरे भाई भरत का कोई शत्रु बलशाली हो गया है ? अरण्य को जलाने में समर्थ दावाग्नि भी पवन का सहारा चाहती है ।
२२. निःशङ्कमा कमरातिभूभृद्हृत्कुंज वास्तव्यमपास्य दूत !
त्वद्भर्तुराविष्कुरु शासनं मे, पुरो नृपाश्चारपुरस्सरा हि ॥
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दूत ! शत्रु-राजाओं हृदय - कुंज में वास करने वाले आतंक को दूर कर तुम निःशंक होकर अपने स्वामी भरत की आज्ञा को मेरे आगे प्रगट करो। क्योंकि राजा दूत को ही आगे रखते हैं ।
२३.
इतीरयित्वा बहली क्षितीशः ससंभ्रमं सप्रणयं सनीति । क्षण विशश्राम चरोऽथ भालस्थलीमिलत्पाणिरुवाच भूपम् ॥
१. सारथ्यं – साहाय्यम् ।
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इस प्रकार बहली प्रदेश के राजा बाहुबली ने ससंभ्रम, सप्रेम और नीतियुक्त वचन कहकर क्षणभर के लिए विश्राम किया। तब दूत ने जुड़े हुए दोनों हाथों से भारतस्थली का स्पर्श करते हुए कहा