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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् २४. राजन् ! भवन्तं मरताधिराजः , प्रादुर्भवन्नीतिवचोमिषत्ते।
ममाननेन क्षितिवल्लमा हि , नीतिप्रियाः प्रीतिपरा न चैवम् ॥
राजन् ! महाराज भरत मेरे मुंह द्वारा प्रगट होकर आपको नीति-वचन कह रहे हैं। क्योंकि राजा नीतिप्रिय होते हैं, आपकी भांति प्रीति-परायण नहीं होते। २५. सा भारती भारतभूमिभतुमाललम्बे नपमौलिभिर्या ।
ध्रियेत नित्यं नवमल्लिकेव , स्फुरन्तमामोदभरं वहन्ती.॥ राजन् ! भारत की भूमि के स्वामी भरत की उस वाणी को बड़े-बड़े राजा भी सदा आमोद को वहन करने वाली नई मल्लिका की माला की तरह धारण करते हैं । उस वाणी को लेकर मैं यहां आया हूं। २६. वयं चरा स्वामिनिदेशनिघ्ना स्तमोहरास्तापकरा जगत्याम् ।।
श्रितानुवृत्तिं न विलङ्घयामः , करा इवोष्णातिबिम्बचारम् ॥ राजन् ! हम दूत हैं। हम स्वामी के आदेश के .अधीन रहते हैं। हम इस जगती में सूर्य की रश्मियों की भांति तम का हरण और ताप करने वाले हैं। हम अपने आश्रयदाता स्वामी की अनुमति का उसी प्रकार उल्लंघन नहीं करते जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य के बिम्ब के मार्ग का अतिक्रमण नहीं करतीं। २७. संदेशहारी निजनायकस्य , नैर्बल्यमाविष्कुरुते पुरस्तात् ।
प्रथिनां यः सपयोधिवन्हि'समानतां गच्छति संश्रयारिः ॥ . यदि दूत अपने स्वामी की निर्बलता शत्रुओं के समक्ष प्रगट करता है तो वह समुद्र की भग्नि की भांति अपने आधार को नष्ट करने वाला शत्रु होता है। २८. अतस्त्वया श्रीमरतानुजन्मन्! , वचश्चरस्याप्यवधारणीयम् ।
मलीमसं वारिदवारि मावि , न हि श्रिये किं सरसीवरस्य ? इसलिए भरत के अनुज ! आप दूत के वचनों को ध्यानपूर्वक सुनें । क्या बादल का मलिन पानी मानसरोवर की शोभा के लिए नहीं होता?
१. निघ्न:--पराधीन (नाथवान् निघ्नगृह्यको-मभि० ३।२०) २. करा.''चारम्-यथा किरणाः सूर्यमंडलचारं (नातिकामंति)। . ३. पयोधिवन्हिः-वड़वानल। ४. संश्रयारि:--संश्रयस्य–माश्रयस्य, परिः-शदः, संश्रयारि:-पायरी। ५. सरसीवरस्य-मानससरसः-मानसरोवर की।