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द्वितीयः सर्गः २६. शतं सुतानां वृषभध्वजेन , भिन्नेषु देशेष्वथ विन्यवेशि ।
नामाङ्कतो राजपदेऽभिषिच्य , सतां हि वृत्तं सततं प्रवृत्त्यै ।। राजन् ! महाराज ऋषभ ने अपने सौ पुत्रों का नाम-ग्राहपूर्वक राज्याभिषेक कर उन्हें भिन्न-भिन्न प्रदेशों में स्थापित किया था। क्योंकि महान व्यक्तियों का व्यवहार सतत प्रवृत्ति-परम्परागत इतिहास या सतत आचरणीय बन जाता है ।
३०. तदन्तरे कोपि बलातिरिक्तो , भुवस्तलं प्लावयितुं सहिष्णुः ।
कल्पान्तकालाब्धिरिवोत्तरङ्गः , सौभ्रात्रसीमैव निषिद्धिरस्य ॥
राजन् ! इन भाइयों के बीच ऐसा कोई बलशाली भी है जो अपने पराक्रम से सारी पृथ्वी को आक्रान्त करने में उसी प्रकार समर्थ है जिस प्रकार उत्ताल तरंगों वाला प्रलयकाल का समुद्र प्लावित करने में समर्थ है। किन्तु सौभ्रात्र की सीमा ही ऋषभ के पुत्र-समूह को ऐसा करने से रोके हुए है। . ३१. ज्येष्ठोऽनसंजाततया गुणैश्च , तातेन यः स्वीयपदे न्यवेशि ।
तस्य प्रतापाब्धिहिरण्यरेताः' , प्रथिपाथांसि तनूकरोति ॥ राजन् ! भरत गुणों से तथा जन्म से ज्येष्ठ हैं इसलिए पिताश्री ने उन्हें अपने पद पर स्थापित किया। उनकी प्रतापरूपी वाडवाग्नि शत्रुरूपी जल को क्षीण कर रही है। ३२. केचिन् नपा मौलिमणीमपास्य , निवेश्य मौलौ गुरुमेतदाज्ञाम् ।
अप्यूर्ध्वजानुक्रमवर्तमानाः , प्रभोः पुरः प्राङ्गणमाश्रयन्ति ।
कई राजा अपने मुकुट की मणी को हटाकर उसके स्थान में महाराज भरत की गुरुतर आज्ञा को धारण करते हैं। वे घुटनों के बल स्वामी भरत के सामने प्रांगण पर ही बैठ जाते हैं।
३३. भूपालवक्षस्थललम्बिहार-संघट्टसंघर्षणचूर्णगौरम् ।
राजाजिरं राजति तस्य कोत्तिशीतांशुरोचिश्छरितश्रियेव ॥ राजाओं के वक्षस्थल पर लम्बायमान हारों के संघट्टन और संघर्षण से प्राप्त चूर्ण से राज-प्रांगण श्वेत हो गया था। मानो कि महाराज भरत की कीर्तिरूपी चन्द्रमा की किरणों की द्युति से वह शोभित हो रहा हो ।
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१. प्रतापाब्धिहिरण्यरेता:-प्रतापवाडवानलः-प्रतापरूपी वाडवाग्नि। २. कीति....."श्रियेव-यशःशशधरकिरणस्फुरितलक्ष्म्येव (पञ्जिका पत्र ८)