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________________ . . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ३४. सुतामुपादाय नपाश्च केचित् , प्रणेमुरेनं स्वजनं विधाय। गिरीन्द्रमुख्या इव नीलकण्ठं, प्रभूतभूत्यैकनिबद्धचित्तम् ॥ कई राजे प्रचुर ऐश्वर्य में तल्लीन चित्तवाले महाराज भरत को अपनी कन्याएं सौंपकर, उनको अपना स्वजन बनाकर, प्रणाम करने लगे। जिस प्रकार प्रचुर भस्म में निबद्ध चित्तवाले शंकर को हिमालय आदि महान् पर्वत अपनी पुत्रियों को सौंपकर; उन्हें अपना स्वजन बनाकर, प्रणाम करते हैं। ३५. महामृगेन्द्रासनसन्निविष्टं , नृपः परीतं त्रिदशैरिवेन्द्रम् । स्वयं तमायान्ति नरेन्द्रलक्ष्म्यो , महीध्रकन्या' इव वारिराशिम् ॥ जिस प्रकार इन्द्र देवताओं से घिरे रहते हैं, उसी प्रकार महान् सिंहासन पर बैठे हुए भरत भी राजाओं से घिरे रहते हैं। जैसे नदियां स्वयं ही समुद्र में जा मिलती हैं, वैसे ही राज-लक्ष्मियां स्वयं भरत में आ मिलती हैं। ३६. सर्वेषु भभत्सु विभाति सोय , परोन्नतिरिवामिनन्द्यः । आक्रान्तनिःशेषमहीनिवेशः , प्रोद्दीप्रकल्याणमनोरमश्रीः ॥ जैसे मेरु पर्वत सभी पर्वतों में अभिनन्दनीय और उन्नत होता है वैसे ही महाराज भरत सभी राजाओं में अभिनन्दनीय और उन्नत समृद्धियों से युक्त हैं। उन्होंने समूची पृथ्वी को आक्रान्त किया है और वे प्रदीप्त कल्याण की मनोरम शोभा से युक्त हैं। ३७. वजाहतानां वसुधाधराणां , भवेच्छरण्यः किल वारिराशिः। नैतद्भिया त्रस्तमहीश्वराणां , लोकत्रयेप्यस्ति परः शरण्यः॥ राजन् ! यह सुना जाता है कि वज्र से आहत पर्वतों के लिए समुद्र शरण-स्थल है किन्तु महाराज भरत के भय से त्रस्त राजाओं के लिए तीन लोक में भी कोई दूसरा शरण-स्थल नहीं है । १. उपादाय-प्राभृतीकृत्य । २. भरतपक्षे भूतिः-संपत्तिः, महादेवपक्षे भूतिः-भस्मा ३. महीध्रकन्या:-नदियां । ४. वारिराशि:-समृद्र।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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