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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
८२. धम्मिल्लमारशिथिलालकबिदुसेके
रुज्जीवयन्त्य इव शङ्करदग्धकामम् । क्रीडातटाकमवगाह्य तटं तरुण्याः, सूक्ष्माम्बरप्रकटिताङ्गरुचः प्रयाताः ॥
जूडे के शिथिल केशों पर लगे जल बिन्दु के सेक से शंकर द्वारा दग्ध कामदेव को पुनः उज्जीवित करती हुई वे सुन्दरियाँ क्रीडा-सरोवर का पूरा अवगाहन कर तट पर आ गईं। उस समय सूक्ष्म वस्त्रों के भीतर से उनके शरीर की- कान्ति प्रकट हो रही थी।
८३. नरपतिरिति स्नात्वा क्रीडासरस्तटमागत.,
स्तदनुहरिणीनेत्रा नीराभिषिक्तकचोच्चयाः। ' प्रणयिहृदयं नातिकामन्त्यनन्यहृदस्त्वमः, प्रसरतितरां प्राच्यात् पुण्योदयाद् हि सुखं नृणाम् ॥
इस प्रकार स्नान आदि से निवृत्त हो महाराज भरत क्रीडा-सरोवर के तट पर आ गए । उनके पीछे-पीछे भीगे हुए केशों वाली सुन्दरियाँ भी तट पर आ गईं। अनन्य हृदय वाली ये स्त्रियाँ अपने पति के हृदय की भावना का अतिक्रमण नहीं करती। क्योंकि मनुष्यों का सुख उनके पूर्वाजित पुण्योदय से ही प्रसरित होता है।
-इति वनविहारक्रीडावर्णनो नाम सप्तमः सर्गः