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सप्तमः सर्गः उन सुन्दरियों की केश-रचनाओं में फल लगे हुए थे। जलक्रीडा के समय वे फूल पानी में गिर पड़े। उस समय वह सरोवर थोड़े तारों से युक्त प्रभात के अकाश की भांति लग रहा था । सुन्दरियों के स्तन रूपी शैल-शृगों से टकरा कर उस सरोवर की ऊर्मियों का वलय टूट चुका था। इस प्रकार उन सुन्दरियों के कारण वह क्रीडा-सरोवर विविध रूप धारण कर रहा था।
७६. आकाशसंचरसितच्छदवीजितस्य ,
हा ! शैत्यमभ्यधिकमम्बुचयस्य किं वा ? किं वा प्रफुल्लनयनाङ्गसमागमस्य , प्रोचान एवमयमुत्पुलको बभूव ॥
'आकाशगामी हंसों द्वारा प्रकंपित सरोवर का पानी ज्यादा शीतल है अथवा स्त्रियों के अंग का समागम'-ऐसा कहता हुआ भरत रोमांचित हो उठा।
८०. अद्भिर्व्यपासि किल कज्जलकालिमा दृग
द्वन्द्वान्न किञ्चिदपि पाटलताधरोष्ठात् । स्त्रीणामिति व्यरचि चान्यनिजावबोधो, नैसगिकी हि कमला क्वचिदप्यनेत्री ॥
सरोवर के पानी ने उन सुन्दरियों के नयन-युगल के कज्जल की कालिमा को धो डाला किन्तु अधर-ओष्ठ की पाटलता (रक्तता) को दूर नहीं किया। सरोवर के इस व्यवहार ने स्वर-पर का बोध करा दिया। क्योंकि स्वाभाविक संपदा कहीं भी छीनी नहीं जा सकती। .
८१. यावत् सहस्रकिरणो गगनावगाही ,
तावत् कुरङ्गनयने ! न हि नो वियोगः । गन्ताऽयमस्तमचिरादिति दीनवक्त्रे, कोके प्रियां वदति भूमिभृता न्यत्ति ॥
उदासीन चक्रवाक अपनी प्रिया से कह रहा था-'हे कुरंगनयने ! जब तक सूर्य गगन का अवगाहन करता रहेगा तब तक हमारा वियोग नहीं होगा। किन्तु यह सूर्य अब शीघ्र ही अस्त हो जाने वाला है।' यह सुनकर चक्रवर्ती भरत वहाँ से लौट गया।
१. उत्पुलक:-रोमाञ्चित ।