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भरतबाहपलिमहाकाव्यम् ७५. सावरोषनृपतेः समागमादुच्छलन्निव तरङ्गपाणिभिः ।
स हसन्निव विकासिपद्मिनीकाननैः समतुषत् सरोवरः॥
अपने अन्तःपुर के साथ आए हुए नृपति को देखकर वह सरोवर अपने तरंग रूपी हाथों से उछलता हुआ और विकसित कमलिनियों के कानन से मुस्कराता हुआ अत्यन्त प्रसन्न हुआ !
७६. क्रीडातटाकमवनीपतिराजगाहे,'
साधं वधुभिरिभराज इव द्विपीभिः । हस्तोद्ध ताम्बुरुहिणीनिचयः समन्तादावर्तमानशफरी समलोचनाभिः॥
जैसे यूथपति अपनी हथिनियों के साथ सरोवर का अवगाहन करता है, वैसे ही घूमती हुई मछलियों की भांति दृष्टिवाली वधूओं के साथ महाराज भरत ने. हाथ से कमलिनी समूह को उखाड़कर, उस क्रीडा-सरोवर का चारों ओर से अवगाहन किया। .
७७. काभिश्चन व्यरचि लोचनकज्जलौघैः ,
श्यामं जलं शुचितरं स्तनचन्दनैश्च । एवं वितर्क इह केलिसरोवरेऽभूत् , सङ्गः खरांशुतनया सुरकुल्ययोः किम् ?
सुन्दरियों के लोचन काजल से आंजे हुए थे। उसके कारण सरोवर का पानी कृष्णवर्ण वाला हो रहा था। उनके स्तनों पर चन्दन का लेप'था। उसके कारण पानी सफेद हो रहा था। उस समय उस क्रीडा-सरोवर को देखकर यह वितर्क उत्पन्न हुआ कि क्या यहाँ यमुना और गंगा का संगम हो रहा है ?
७८. धम्मिल्ल भारकुसुमैः पतितर्जलान्तः , .
प्राभातिकाम्बरमिवस्थिततुच्छतारम् । चूर्णीकृतोमिवलयं स्तनशैलशृङ्गः, क्रीडासरो विविधरूपमतान्यमूभिः ॥
१. आजगाहे-विलोडयामास । २. द्विपीभिः-हस्तिनीभिः । ३. शफरी-मछली (अभि० ४।४१२) ४. खराशुतनया-यमुना (कालिन्दी सूर्यजा यमी-अभि० ११४६/। ५. सुरकुल्या-गङ्गा (कुल्या इति नदी ।) ६. धम्मिल्लः—केश-रचना (धम्मिल्लः संयताः केशाः-प्रभि० ३।२३४)