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________________ २५२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् जैसे आंखों में कज्जल व्याप्त होता है, वैसे ही रात्री में सर्वत्र भौंरों के समूह जैसा सघन काला अन्धकार चारों ओर फैल गया। यह देखकर भूज-पराक्रमी सुभटों का रात्री के प्रति रोष उभर आया । उन्होंने सोचा-'अभी भी यह रात कितनी लम्बी है ?' ३५. तमो निरस्यत्सहसा प्रभाभर विलोक्य वीराः समरोत्सुकारततः। परस्परामचरिति प्रभाकरोऽभ्युदेति किं वाऽयमुदेति चन्द्रमाः? प्रभा के समूह से सहसा अन्धकार नष्ट हो गया। यह देखकर संग्राम के लिए उत्सुक वीर सुभटों ने परस्पर यह तर्कणा की कि क्या सूर्य उदित हो रहा है या चन्द्रमा ? .' ३६. शशाङ्ककान्तेन समं मिलन्त्यसौ , विराममायाति न कि विभावरी। तमिस्रकास्तूरिकयक्षकर्दम'क्षयान् मृगाक्षी न रते हि तुष्यति ॥ अपने पति चन्द्रमा के साथ संगम करती हुई यह रात्री विराम क्यों नहीं लेती ? क्योंकि काली कस्तूरी के मिश्रण से बने हुए सुगन्धित लेप के क्षीण हो जाने पर सुन्दरी . रति-काल में संतुष्ट नहीं होती। ३७. इमा नलिन्यो विनिमिल्य लोचने , निशि प्रसुप्तास्तरणेवियोगतः । अलोकयन्त्यः सकलं निशाकरं , रुचिहि भिन्ना मनसो जगत्त्रये ॥ ये कमलिनियाँ सूर्य के वियोग से आँखें मूंदकर रात्री में सो रही हैं । ये पूर्ण चन्द्रमा को भी नहीं देख पा रही हैं। क्योंकि तीनों जगत् में प्राणियों की मानसिक रुचि भिन्नभिन्न होती है। ३८. रथाङ्गनाम्नोः सुरसिन्धुसकते' , नितान्तभेदाद् वसतोः पृथक् पृथक् । वियोगदीनैरभिषङ्गसङ्गिभिर्वचोभिरेषा क्षयमाप नो निशा ॥ चक्रवाक पक्षी रात्री काल में अपनी प्रियाओं से नितान्त अलगाव की स्थिति के कारण गंगा नदी के पुलिन में अलग-अलग रह रहे हैं। यह रात्री वियोग से अत्यन्त दीन बने हुए इन चक्रवाकों की वाणी से भी द्रवित होकर पूरी नहीं हो रही है। ३६. शशाङ्क ! चित्रं परिलोलतारकं , नभःश्रियो वीक्ष्य मुखं समन्ततः। रथाङ्गनाम्नां मिथुनानि लेभिरे , वियोगमेवं रतये निशा न तत् ॥ १. यक्ष कर्दमः-कपूर, अगरु, कंकोल, कस्तूरी और चन्दन को मिश्रित कर बनाया गया सुगन्धित लेप (अभि० ३।३०३) २. सकतम्-पुलिन (पुलिनं तज्जलोज्झितं । सैकतञ्च-अभि० ४।१४४)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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