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त्रयोदशः सर्गः 'हे चन्द्र ! आकाश रूपी लक्ष्मी का ताराओं से चपल और विचित्र मुंह को चारों
ओर से देखकर चक्रवाकों के युगल वियुक्त हो गए। इसलिए रात्री आनन्ददायी नहीं है।'
४०. अयं बलाद् बाहुबलिः क्षितीश्वरो , युयुत्सुरादास्यति मामकं रथम् ।
इतीव साशङ्कतया गभस्तिमा नुदेति नाद्यापि न याति यामिनी ॥
'युद्ध के इच्छुक महाराज बाहुबली मेरे रथ को बलात् ग्रहण न कर लें'-इस आशंका से सूर्य अभी भी उदित नहीं हो रहा है और रात नहीं बीत रही है।
४१. इयं त्रियामेति मता तमस्विनी , वदन्ति यच्छास्त्रविदस्तदन्यथा ।
अभूदियं त्वद्य सहस्रयामजुक् , युयुत्सवस्तेऽन्तरिति व्यतर्कयत् ॥
'शास्त्रकार यह मानते और कहते हैं कि रात त्रियामा (तीन यामों वाली) होती है। किन्तु यह बात अन्यथा हो रही है। यह तो आज हजारों यामों वाली बन गई हैयोद्धाओं ने मन में ऐसी वितर्कणा की।
४२. महाहवौत्सुक्यभृतां तरस्विनां , सुधावदेषां भवतिस्म सङ्गरः । ___ततस्तदीयापि बभूव तादृशी , प्रवृत्तिरिष्टं हि मनोविनोदकृत् ॥
महान युद्ध की उत्सूकता से भरे उन पराक्रमी सुभटों के लिए युद्ध अमृत की भांति था। उन सुभटों की प्रवृत्ति भी वैसी ही हो गई। क्योंकि इष्ट प्रवृत्ति मन का विनोद करने वाली होती है ।
४३. इतीरिणः केचन संलयान्तरे , मम क्व वर्मास्त्रकलापवाजिनः ।
समुद्यता योद्धमलं निवारिता , बहुस्त्रियामेत्यनुशस्य चानुगैः॥
'मेरा कवच, अस्त्र, तरकस और घोड़ा कहां है-इस प्रकार वितर्कणा करते हुए कुछ सुभट नींद में ही युद्ध करने के लिए उद्यत हो गये। तब उनके अनुगामियों ने यह कहकर उन्हें रोक दिया कि अभी रात बहुत बाकी है।
४४. रविः किमद्यापि न हन्ति शर्वरी , कथं न शीतांशुरुपत्यदृश्यताम् ?
विशः प्ररुष्टा इव नो वदन्त्यमः , कथं विरावैरिति केचिदब्र वन् ।
१. युयुत्सुः-योवृमिच्छुः । २. गभस्तिमान्–सूर्य । ..