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________________ २५४ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् कुछ सुभटों ने यह कहा-'सूर्य अब तक भी रात को पूरी क्यों नहीं करता ? चांद आँखों से ओझल क्यों नहीं हो जाता ? रूठे हुए व्यक्तियों की भाँति ये दिशायें पक्षिय .. के कलरव से मुखरित क्यों नहीं हो रही हैं ?' ४५. इति क्रमाद् युद्धरसाकुलर्भटः , प्रभापितेव क्षणदा क्षयं गता। ततः शशाङ्कोपि निलीनवान् क्वचिद् , वधूवियोगे विधुरीभवेन्न कः ? इस प्रकार युद्ध के रस से आकुल हुए सुभटों द्वारा मानों डरी हुई रात क्रमशः पूरी हो गई। उसके बाद चाँद भी कहीं विलीन हो गया। पत्नी के वियोग में कौन पुरुष विधुर नहीं होता? ४६. निमीलिताक्षा हि कुमद्वतीततिस्तदा वियोगाच्छशिनोष्यजायत। .. अयं विवस्वान्न विलोक्य एव मे , किमत्र सत्यन्यतरावलोकिनी ?... चन्द्रमा के वियोग से कुमुदिनी की श्रेणी ने अपनी आँखें मूंद लीं, वह सिकुड़ गई। उसने सोचा-'मैं इस सूर्य को देखू ही नहीं। क्योंकि जो पर-पुरुष को देखती है, वह कैसी सती? ४७. करीन्द्रकुम्भप्रतिमेयमानिनीस्तनद्वयाघट्टनमन्थरो मनाक् । . सरिद्वरा वारिजपांसुपिञ्जरो , विभातवाविललास भतले ॥ प्रभात का पवन सारे भूतल पर बहने लगा। वह पवन गंगा नदी में खिले कमलों के पराग से पीत-रक्त होकर हाथी के कुम्भस्थल से प्रतिमेय सुन्दरियों के स्तनों के संघटन के कारण धीरे-धीरे बह रहा था। ४८. अथावनीशक्रमिति स्तुतिव्रता , व्यबूबुधन सस्तुतिभिर्वचोभरैः। उपस्थिता द्वारि वुवूर्षया' तवाधुना जयश्रीर्जगदीशनन्दन ! ॥ स्तुतिकारों ने प्रशंसायुक्त वचनों से महाराज बाहुबली की स्तुति करते हुए कहा'हे जगदीशनन्दन ! अभी आपको वरण करने की इच्छा से विजयश्री द्वार पर उपस्थित है।' ४६. त्वयैव सावज्ञतया न होयते , महीन्द्र ! शय्या सहजेव धीरता। ___अमी च संनह्य भटाः सुतास्तवाजये चिकीर्षन्ति मनस्त्वदाज्ञया । १. क्षणदा-रानी (शर्वरी क्षणदा क्षपा-अभि० २।५५) २. सरिद्वरा-गंगा। ३. वुवूर्षा-वरितुमिच्छा।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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