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वाली आंखों से निरपराधी पति को भी तर्जना देती हुई कुपित हो गई ।
२४.
२५.
तब पति ने कहा - ' है खञ्जनाक्ष े ! प्रणय भंग से भयभीत मैंने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है। तुम्हारी सखी इस बात की साक्षी है - यह कहकर उसने उस मानिनी स्त्री का अनुनय किया, उसके क्रोध को शांत किया ।
२६.
भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
२७.
खञ्जनाक्षि ! तव मन्तुरादधे, नो मया प्रणयभङ्गभीरुणा । साक्षिणी तव सखीति मानिनी तेन कापि मुहुरन्वनीयत ॥
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२८.
कोपने ! मधुना निगद्यते युक्तमेव दयितेन तत्कथम् । मन्यसे प्रणयिनं न दुर्मदाद्, गर्वितांसि भृशमात्मनः कृते ॥ ईदृशः प्रियतमो न हि त्वया प्राप्य एव किमनेन दुर्लभा । वागेव दयिताऽलिरन्वशात्, तामिति प्रणयकर्कशं वचः ॥
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— युग्मम् ।
सखीने नायिका से कहा - 'हे कोने ! तुम्हारे पति ने आज तुमको उचित ही कहा है।' उसने कहा – 'यह कैसे ?' तब उस सखी ने प्रणय-कर्कश वाणी में उसे कहा – 'तुम अपने आप में बहुत गर्वीली हो गई हो। तुम दुर्मद के कारण अपने प्रेमी को कुछ नहीं समझती । इस प्रकार का पति तुम्हें कभी प्राप्त नहीं हो सकता । तुम्हारे जैसी स्त्री क्या उसके लिए दुर्लभ है ?"
आगतेन सखि ! नागतेन किं, प्रेयसेतरनिबद्धचेतसा ।
कापि शृण्वति विलासिनीति' तामालिमाह सुभगत्वगविता ||
अपने सौभाग्य पर गर्व करती हुई किसी सुन्दरी ने पति को सुनाते हुए उस सखी से कहा - 'हे लखि ! जिसका मन दूसरी प्रेयसी में निबद्ध है, उसे पति के आने और न आने से क्या ?"
मुञ्च मानिनि ! रुषं प्रियेऽधुना, यत्तवैव विरहो भविष्यति । व्याजमाप्य निहनिष्यति स्मरस्त्वां पुनः प्रियसखीत्युवाच ताम् ॥
प्रिय सखी ने उससे कहा - ' मानिनी ! तुम अब अपना कोध छोड़ दो । हे प्रिये ! पति के साथ विरह तुम्हारा ही होगा । इस विरह रूपी मित्र को प्राप्त कर कामदेव तुम को पीड़ित करेगा ।'
१. विलासिन् — पतिः तस्मिन् — विलासिनि ।