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सप्तमः सर्गः
२६. जोविते सति निवेदनं सखि ! प्रेयसश्च सुखदुःखयोरिति । !
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प्रीततरमना निशम्य तत् सस्वजे सरभसं स मानिनीम् ॥
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'सखि ! यदि पति जीवित रहा तो मैं उसे सुख-दुख का निवेदन करूंगी' - यह सुनकर प्रेम से कायल मन वाले प्रेमी ने हठात् उस सुन्दरी को बाहों में भर लिया ।
३०. क्लृप्तपुष्पशयनं लताजयं कापि कान्तमुपनीय कामिनी ।
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तत्क्षगोच्चितस्रजा दृढ़, बध्यमानमिति सागसं जगौ ॥
वहाँ एक लतागृह में पुराना बिछी हुई थी। एक कामिनी अपने पति को वहां ले आई । उसे आराधी मानकर तत्काल के चुने हुए पुष्पों से बनी हुई माला से उसे दृढ़ता से बांधती हुई वह बोली
३१. संयतोऽसि निबिडं मयाऽधुना गन्तुमक्षमपदो भवानितः । मानसं तु तव तत्र संगतं स्वागसः फलमवाप्नुहि द्रुतम् ॥
३२.
'नाथ ! मैंने तुमको सघनता से बांध दिया है। अब तुम इस लता - मंडप से एक पग भी चलने में समर्थ नहीं हो ! तुम्हारा मन तो अपनी प्रिया में ग्रासक्त है । अब तुम निश्चित ही अपने अपराध का फल भोगोगे ।'
३३.
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पुरे गुपरिपञ्जरास्ययोक्तिरेव विदितान वां मया । काञ्चिदेवमनुनीय दक्षिणः, स्वापराधविफलत्वमाचरत् ॥
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'हे प्रिये ! पुष्पों के पराग से पीत-रक्त हुए तुम्हारे दोनों के चेहरों में मैंने कोई भेद नहीं देवा' ह कहते हुए उदार नायक ने किसी एक सुन्दरी का अनुनय कर अपने अपराध को विफल बना डाला ।
योषितः समनुनीय तत्सखी ।
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यस प्रणयविह्वलं मनो इत्युवाच बहुवल्लभे प्रिये
का रतिस्तव गजेन्द्रगामिनि ! ?
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१. 'गले' इत्यपि ।
२. तन इति प्रियाजने ।
अपने पति के प्रति प्रेम-विह्वल मन को लक्षित कर उसकी सखी ने कहा'है गजगामिनी ! बहुपत्नीवाले पति के प्रति तेरा कैसा ?'
अनुराग
३. संगतं - आसक्तम् ।
४. द्रुतम् — निश्चितम् ।