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ऐसा कहे जाने पर वह सुन्दरी सहसा बोल उठी- ' तूने उचित बात नहीं कही । क्या तू यह नहीं जानती कि अमृत सबके लिए प्रिय होता है, किन्तु भाग्य से हस्तगत होने पर ही उसका स्वाद लिया जा सकता है' ।
३६.
रिति सहसं जगाद सा, न त्वयोचितमुदीरितं वचः । कि न वेत्सि सकलप्रिया सुधा, स्वाद्यते करगता हि भाग्यतः ॥
'जिसके पति ने अनेक ललनाओं के प्रेम रस को जान लिया है, वह उन स्त्रियों के मान, कोपन आदि कलनाओं को भी भली भाँति जान लेता है । हे सखि ! कुछ भी नहीं जानने वाले पति के समक्ष मानकारिता नहीं होती क्योंकि पानी को मथने से कौन सा रस पैदा होता है
?"
३७.
भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
ज्ञाने कललनारसः प्रियो, मानकोपकलनामवैति यत् । सख्यवेत्तरि न मानकारिता, मन्यने हि सलिलस्य को रसः ?
३८.
काञ्चन प्रसवरेणुमुष्टिना, घूर्णिताक्षिकमलां प्रवञ्चय सः । चुम्बतिस्म दयिता मुखाम्बुजं कोविदो हि कुरुते मनीषितम् ॥
"
महाराज भरत ने एक सुन्दरी के प्रति मुट्ठी भर पुष्प पराग फेंका। सुन्दरी की आंखें घूर्णित हो गई । इस प्रकार उसे ठगकर महाराज ने उस कान्ता का चुम्बन ले लिया । क्योंकि विचक्षण व्यक्ति ही अपनी इच्छानुसार कर सकता है ।
एहि एहि वर ! देहि मोहनं', नेतरासु हृदयं विधेहि रे । एवमक्षरमयीं सुमस्रजं, कापि वल्लभगले निचिक्षिपे ॥
'नाथ ! चल, चल, मुझे रतिज सुख दे। दूसरी स्त्रियों के प्रति अपना मन मत लगा' - इस प्रकार की अक्षरमयी फूलों की माला किसी सुन्दरी ने अपने प्रिय के गले में डाल दी ।
कापि कुड्मलहता विलासिनी, वल्लभोपरि पपात संभ्रमात् । एतदीयमथ तत्सखीजनैनिस्त्रपत्वमुररीकृतं न हि ॥
फूलों के गुच्छों से आहत होने पर एक विलासिनी संभ्रम के साथ अपने वल्लभ पर जा गिरी । उसकी सखियों ने उसके इस कृत्य को लज्जाजनक नहीं माना ।
- अभि० ३ |२०० )
१. मोहनं — मैथुन (सुरतं मोहनं रतम् - प्र
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