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सप्तमः सर्गः
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कोई स्त्री वृक्ष के शिखर पर जा बैठी। सूर्य की किरणों से उत्तप्त होने के कारण उसके मुख पर स्वेद-बिंदु उभर आए। उस समय वह मुख ऐसा लग रहा था मानो कि कमलिनी पर पराग के तरल बिंदु उभर आए हों ।
कापि शाखिशिखरं समाश्रिता, वासरेश्वरकरोपतापिता । स्वेदबिन्दुसुभगं मुखं दधौ, पद्मिनीव मकरन्दशीकरम् ॥
पल्लवोल्वणकरः प्रसूनवृक्, जारवत् क्षितिरुहोऽप्यकम्पत । एतदीयपतिलोकनादधः, कामिनी हि न सुखाय सेविता ॥
वह वृक्ष पल्लवी स्पष्ट हाथों वाला और पुष्प रूपी आंखों वाला था । उस स्त्री के पति को अपने नीचे बैठे हुए देखकर वह वृक्ष भी जार पुरुष की भांति कांप उठा क्योंकि दूसरों की स्त्री का सेवन सुख के लिए नहीं होता ।
४१. पुज्यशाखिशिखरावरूढये शक्नुवत्यपि च काचिदिच्छति । मन्मयाढ्य दयिताङ्गसङ्गमं पूच्चकार पतिताहमित्यगात् ॥
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४३.
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कुसुमित तरु शिखर से नीचे उतरने में व्याप्त अपने पति के शरीर का संगम नाथ ! मैं वृक्ष से नीचे गिर पडूंगी।'
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धारिता प्रियभुजेन सा दृढं स्कन्धलग्नलतिकेव तत्क्षणात् ।
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विबद्ध सिचयावशेषका होनिमीलिनयना व्यराजत ॥
समर्थ होती हुई भी कोई सुन्दरी कामदेव से करने की इच्छुक होकर चिल्ला उठी - 'हे
तत्क्षण पति ने उसे अपनी भुजाओं पर दृढ़ता से झेल लिया। वह उस समय कंधों पर लगी लता की भांति शोभित हो रही थी । उस समय उस कान्ता के केवल नीवी से बद्ध वस्त्र शेष रहा था, और सारे वस्त्र खुल गए थे। लज्जावश उसकी आंखें निमीलित हो गई थीं।
एतदीय कबरीविराजिनांसेन सोऽवहदनुत्तरां तुलाम् । भर्गभग्नधनुष' रतीशितु:, स्कन्धदेशतरवारि वाहिनः ॥
उस सुंदरी की कबरी (केश रचना) पति के कंधों पर लटक रही थी । उससे वह ऐसा
१. भर्गभग्नधनुषः - भर्गेण - ईश्वरेण ( महादेवेन ) भग्नं धनुष्― चापो यस्य तस्य ।
२. रतीशितुः — कामदेवस्य ।
३. तरवारि:- तलवार (तरवारिकौक्षेयकमण्डलाग्रा - अभि० ३।४४६ )