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________________ सप्तमः सर्गः ३६. ४०. कोई स्त्री वृक्ष के शिखर पर जा बैठी। सूर्य की किरणों से उत्तप्त होने के कारण उसके मुख पर स्वेद-बिंदु उभर आए। उस समय वह मुख ऐसा लग रहा था मानो कि कमलिनी पर पराग के तरल बिंदु उभर आए हों । कापि शाखिशिखरं समाश्रिता, वासरेश्वरकरोपतापिता । स्वेदबिन्दुसुभगं मुखं दधौ, पद्मिनीव मकरन्दशीकरम् ॥ पल्लवोल्वणकरः प्रसूनवृक्, जारवत् क्षितिरुहोऽप्यकम्पत । एतदीयपतिलोकनादधः, कामिनी हि न सुखाय सेविता ॥ वह वृक्ष पल्लवी स्पष्ट हाथों वाला और पुष्प रूपी आंखों वाला था । उस स्त्री के पति को अपने नीचे बैठे हुए देखकर वह वृक्ष भी जार पुरुष की भांति कांप उठा क्योंकि दूसरों की स्त्री का सेवन सुख के लिए नहीं होता । ४१. पुज्यशाखिशिखरावरूढये शक्नुवत्यपि च काचिदिच्छति । मन्मयाढ्य दयिताङ्गसङ्गमं पूच्चकार पतिताहमित्यगात् ॥ ४२. ४३. 1 कुसुमित तरु शिखर से नीचे उतरने में व्याप्त अपने पति के शरीर का संगम नाथ ! मैं वृक्ष से नीचे गिर पडूंगी।' , 3 १३७ धारिता प्रियभुजेन सा दृढं स्कन्धलग्नलतिकेव तत्क्षणात् । 1 विबद्ध सिचयावशेषका होनिमीलिनयना व्यराजत ॥ समर्थ होती हुई भी कोई सुन्दरी कामदेव से करने की इच्छुक होकर चिल्ला उठी - 'हे तत्क्षण पति ने उसे अपनी भुजाओं पर दृढ़ता से झेल लिया। वह उस समय कंधों पर लगी लता की भांति शोभित हो रही थी । उस समय उस कान्ता के केवल नीवी से बद्ध वस्त्र शेष रहा था, और सारे वस्त्र खुल गए थे। लज्जावश उसकी आंखें निमीलित हो गई थीं। एतदीय कबरीविराजिनांसेन सोऽवहदनुत्तरां तुलाम् । भर्गभग्नधनुष' रतीशितु:, स्कन्धदेशतरवारि वाहिनः ॥ उस सुंदरी की कबरी (केश रचना) पति के कंधों पर लटक रही थी । उससे वह ऐसा १. भर्गभग्नधनुषः - भर्गेण - ईश्वरेण ( महादेवेन ) भग्नं धनुष्― चापो यस्य तस्य । २. रतीशितुः — कामदेवस्य । ३. तरवारि:- तलवार (तरवारिकौक्षेयकमण्डलाग्रा - अभि० ३।४४६ )
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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