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________________ सप्तमः सर्गः . . भरत ने अशोक के पत्तों से स्वयं एक कामिनी के हृदय को आहत किया । आहत होने पर भी वह प्रसन्न हुई। क्योंकि प्रेमालु स्त्रियां प्रेम में कायल होती हैं । वे अपने प्रेमी से प्रसन्न होती हैं। १६. मामपास्य किमनेन पूर्वतस्ताडितेयममुना हता त्वहम् । चूर्ण मुष्टिमिति तन्मुखं रुषान्वक्षिपन्नयनतान्तिकारिणीम् ॥ इस भरत ने मुझे छोड़कर पहले इस स्त्री को अशोक के पत्तों से क्यों आहत किया है ? इसने मुझे चोट पहुंचाई है। यह सोचकर एक कामिनी ने रुष्ट होकर भरत के मुंह को लक्ष्य कर आँखों में क्लान्ति पैदा करने वाला मुट्ठी भर चूर्ण उछाला। २०. युक्तमेवमनया कृतं दृशोर्दण्ड एव विदधे यथोचितम् । कान्तयेति निहतोपि सोऽतुषत् , प्रेमणीह विपरीतता हि का ? उस वल्लभा ने चूर्ण उछालकर उचित ही किया। उसने मेरी आंखों को यथोचित दंड दिया-यह सोचकर कान्ता से ताड़ित होने पर भी भरत प्रसन्न हुआ। प्रेम में विपरीतता कैसी ? २१. काचिदन्नतमुखी प्रतिद्रुमं , हस्तदुर्लभतमप्रसूनकम् । स्वीयमसमधिरोप्य नायिता , चित्तकामममुना ह्यशारदा ॥ कोई लज्जारहितं स्त्री हाथ से दुष्प्राप्य पुष्प वाले वृक्षों के आगे (फूल तोड़ने की इच्छा से) ऊर्ध्वमुखी हो गई। उस समय भरत ने उसे कंधे पर चढ़ाकर उसके चित्त की अभिलाषा को पूरा किया। २२. काचनापि कुसुमानि चिन्वती , कण्ठदाम दयितस्य गुम्फितुम् । चुम्बितेयमधरोष्ठपल्लवे , चञ्चरीकतरुणेन तत्क्षणात् ॥ कोई अंगना अपने पति के लिए माला गूंथने के लिए फूल चुन रही थी। इतने में ही एक भ्रमर रूपी तरुण ने उसके अधर-ओष्ठ रूपी पल्लवों का चुंबन कर लिया। २३. चुम्बितं मधुकरेण तन्मुखं , वीक्ष्य कापि दयितारुषं दधौ । भ्रू विभङ्गकुटिलेन चक्षुषा , तर्जयन्त्यपि निरागसं प्रियम् ॥ 'मधुकर ने मेरे मुंह का चुम्बन ले लिया है'-यह देखकर वह स्त्री अपने कुटिल भौंहों १. अशारदा-अलज्जावती।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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