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.. भरत बाहुबलिमहाकाव्यम् से विस्तृत आकाश में बिखरा हुआ कुमुद का पराग महाराज भरत को चांदनी का भ्रम पैदा कर रहा था।
१४. केकयाऽब्दसुहृदां तदा वनं , कामिनोंर्वददितीव वामिह'।
खेलतं कलयतं फलं श्रियोऽमदृशो हवसरो दुरासदः॥
उस समय वह वन मयूरों की केका से मानो कामी स्त्री-पुरुषों से यह कह रहा हो कि ये जैसे नाच रहे हैं वैसे तुम (युगल) भी नाचो और वनश्री.की शोभा को लूटो, क्योंकि ऐसा अवसर मिलना दुर्लभ है।
१५. संश्रितः स ललनाभिरुल्लसद्दो रुरोजकमलाभिरञ्जसा। .
वल्लरीः फलमृणालशोभिनीः , स्पर्धयेव दधतां महीरुहाम् ॥
उल्लसित भुजा और स्तनश्री वाली ललनाओं ने भरत का आलिंगन किया। मानो कि वे फल और मृणाल से शोभित वल्लरियों को धारण करने वाले वृक्षों से स्पर्धा कर रही हों।
१६. अन्वभूवमहमद्य शुद्धतां , भारतेश्वरसमागमादिति ।
वातधूतनवपल्लवच्छलान् , नृत्यतीव तरुराजिर ग्रंतः॥
भरत चक्रवर्ती के समागम से मैंने आज शुद्धता का अनुभव किया है-मानो कि यह दिखलाती हुई आगे की तरु-राजि पवन से कंपित नव पल्लवों के मिष से नाचने लगी।
१७. उद्धतं नभसि मातरिश्वना , प्रोन्मिषत्स्थलसरोजिनीरजः।
उत्तरीयमिव काननश्रियां , न्यस्तमात्मशिरसि प्रियागमात् ॥
पवन ने विकसित होती हुई स्थल-कमलिनी के पराग को आकाश में उछाल दिया। उस समय ऐसा लग रहा था मानो कि कानन की लक्ष्मी ने अपने स्वामी भरत के आगमन से उत्तरीय को अपने शिर पर प्रोढ लिया हो।
१८. पल्लवैः स्वयमशोकशाखिनः, कापि तेन निहता हृदन्तरे ।
हृष्यतिस्म दयिते प्रियाजनः , प्रीतिकातरधिया हि तुष्यति ॥ १. अब्दसुहृद्-मयूर (नीलकण्ठो मेघसुहृच्छिखी—अभि० ४।३८५) २. कामिनो:-स्त्रीपुरुषयोः। ३. वाम्-युवाम्। v. दो:-भुजा (भुजो बाहुः प्रवेष्टो दो:-अभि० ३।२५३)