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चतुर्थः सर्गः मैंने बचपन में अनेक बार उसकी शक्ति को परीक्षा की है, जैसे स्वर्णकार सोने की परीक्षा करता है । क्योंकि विद्वान् मनुष्य के लिए पहले से अपरीक्षित वस्तु अनुताप देने वाली होती है।
१०. इतरस्य जये ममेदशो , न विचारः खलु बान्धवस्त्वयम् ।
जलदो हि कृशानुशान्तये , प्रभविष्णुः शमयेन्न विधुतम् ॥
दूसरों पर विजय प्राप्त करने के लिए मेरे मन में ऐसा विचार नहीं आता। किन्तु यह तो मेरा भाई है, (अतः ऐसा सोचना पड़ रहा है)। मेघ अग्नि को शान्त करने में समर्थ हो सकता है किन्तु वह विद्युत् को शान्त नहीं कर सकता।
११. इतरेऽपि मदीयबान्धवा , यदनापृच्छय ययुस्तमां च माम् ।
मम तद्विरहस्त्वरुन्तुदः' , करिणोऽशान्तरुचे रिवाङ्कुशः ॥
मेरे दूसरे सभी भाई मुझे बिना पूछे ही चले गए-भगवान के पास प्रवजित हो गए । उनका विरह मेरे लिए मर्मघाती सिद्ध हो रहा है, जैसे मदोन्मत्त हाथी के लिए अंकुश मर्मवेदी होता है।
१२. अयमेय समस्तबन्धुषु , स्थितिमा नेस्तमोऽवशिष्यते ।
समसंहृततारकावलेस्तिमिरारेरिव भार्गवोऽहनि ॥
सभी भाइयों में यह मर्यादावान् बाहुबली हो शेष रहा है, जैसे समस्त तारकों को समेटने वाले सूर्य (अन्धकार के शत्रु) के सामने दिन में केवल शुक्र का तारा शेष रहता है। ..
१३. न निधिर्न मणिर्न कुञ्जरो , न च सैन्याधिपतिर्न भूमिराट् ।
दुरवार्यतमैकबान्धवी', मम तृष्णा न हि येन शाम्यति ।।
मेरे पास निधि, मणि, हाथी, सेनापति और राजे--सब कुछ हैं, किन्तु एकमात्र
१. अरुंतुद:-मर्मघाती (स्यान्मर्मस्पृगरुन्तुद:-अभि० ३।१६५) २. अशान्तरुचे:-हस्तिपक्षे-मदोन्मत्तस्य, मम पक्षे-अशमिताभिलाषस्य (पंजिका-पत्र १६ ।) ३. स्थितिमान-मर्यादावान्। ४. भार्गव:-शुक्रग्रह (उशना भार्गवः कवि:-अभि०२।३३) ५. यहां 'दुरवार्यतमा' के स्थान पर 'दुर्वार्यतमा' ऐसा होना चाहिए। एकबान्धवी-एक बन्ध
सम्बन्धिनी।