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________________ ७४ बन्धु बाहुबली सम्बन्धी मेरी इस प्रगाढ़ प्यास को वे शान्त नहीं कर सकते । १४. १५. मैं भी बाहुबली से बहुत दूर रहा और वह भी मेरे से दूर रहा। पिताश्री ने हमें केवल शरीर से ही पृथक् किया है, हृदय से नहीं । भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् १६. श्रहमप्यभजं दविष्ठतां, किल तेनापि विदूरतः स्थितम् । वपुषैव पृथक्कृतावुभाविति तातेन हवा च नौ न हि ॥ हम दोनों के बीच समुद्र, विषम पर्वत और जल से परिपूर्ण नदी भले ही हो किन्तु चुगलखोर हमारे बीच कभी न आए । १७. भवतात् तटिनीश्वरोन्तरा, विषमोऽस्तु क्षितिभूच्चयोन्तरा । सरिवस्तु जलाधिकान्तरा, पिशुनो माऽस्तु किलान्तरावयोः ॥ समुद्र आदि के बीच में आ जाने पर परस्पर का प्रेम क्षीण नहीं होता, किन्तु चुगलखोर के बीच में आने पर वह क्षीण हो जाता है । अतः प्र ेम को क्षीण करने की दिशा में चुगलखोर समुद्र से बड़ा है । १८. " प्रणयस्तटिनीश्वरादिकैः पतितैरन्तरयं न हीयते । पिशुनेन विहीयते' क्षणादधिकः सिन्धुवसद्धि मत्सरी ॥ , पचीयत एव संततं वयसा सार्धमिहासुमदेवपुः । हृदयानिलब्धसंभवः, प्रणयः सज्जनयोर्न हि क्वचित् ॥ प्राणियों का शरीर अवस्था के साथ-साथ निरन्तर क्षीण होता जाता है किन्तु सज्जन व्यक्तियों का प्रेम, जो हृदय की भूमि में अंकुरित होता है, कभी क्षीण नहीं होता । द्विजराजनदीयोस्तुलां हरिणौवा दधतोरवर्णदी ।] 1 लभते क इहाऽयशोपि तौ, धरतो नोज्झत एव तो परम् ॥ अवर्णदायी हरिण, वडवानल को धारण करनेवाले चन्द्रमा और समुद्र की तुलना १. विहीयते - न्यूनीक्रियते । २. प्रपचीयते - इत्यन कर्मकर्तृ ' त्वमवसातव्यम् । ३. द्विजराज : - चन्द्रमा । नदीशः - समुद्र । ४. प्रौर्वः - वडवानल ( श्रर्वः संवर्त्तकोऽब्ध्यग्निर्वाडवो - प्रभि ० ४।१६६)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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