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सेना के संभार से खिन्न रणभूमी में होने वाले हुंकारों की भांति, निपुण तीरन्दाज योद्धाओं के धनुष्यों से भीषण टंकार निकलने लगे ।
२.
पञ्चदशः
सर्गः
धनुर्भ्यः कृतहस्तानां टङ्कारा निर्ययुस्तराम् । सैन्य सम्भारविण्णाया, हुङ्कारा इव युर्भुवः ॥
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सर्वतः पर्वताः पेतुः अमूवृक्षान्न संरावान्
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कातरत्वादिति क्षणात् । वर्याः श्रोतुमपि क्षमाः ॥
बड़े-बड़े पर्वत भी इस प्रकार की आवाज को सुनने में असमर्थ थे । वे कायरता से उसी क्षण चारों ओर से ढह पड़े ।
३. टङ्काराकर्णनोभ्रान्ता दिशो दश समन्ततः ।
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तूर्यध्वानप्रतिध्वानव्याजात् पूच्चक्रिरेतराम् ॥
५.
टंकार के शब्दों को सुनकर दशों दिशाएं उद्भ्रान्त हो गईं। वे तूरी के शब्द की प्रतिध्वनि करने के मिष से चारों ओर से चिल्लाने लगीं ।
४. क्वचिद् गजमयं सैन्यं क्वचिद्र रथमयं पत्तिमयं
तुरङ्गममयं क्वचित् । क्वचिद राजत ॥
उस रण भूमि में कहीं हाथियों की, कहीं घोड़ों की, कहीं रथों की और कहीं पैदल सैनिकों की सेना शोभित हो रही थी ।
चतुरङ्गचमूः साथ, विरराज रणक्षितौ ।
कामं वरीतुकामेव, जयलक्ष्मीं स्वयम्वराम् ॥
वह चतुरंग सेना रणभूमी में शोभित हो रही थी । वह ऐसी लग रही थी मानो कि वह स्वयंवर में उपस्थित जयलक्ष्मी का वरण करना चाहती हो ।
१. कृतहस्तः - निपुण तीरन्दाज (कृतहस्तः कृतपुंख: - अभि० ३।४३६ )