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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् दृष्टि के संचरण को रोकने वाले तथा दुर्जन व्यक्ति के अन्तःकरण की भांति कृष्ण कान्ति वाले अन्धकार के अत्यन्त व्याप्त हो जाने पर समता और विषमता के स्वरूप का कोई ज्ञान नहीं हो रहा था।
१५. विनिस्सरच्चञ्चलचञ्चरीकव्याजात् तदा करविणीभिरौज्झि ।
वियोगवन्हेरिव धूमपंक्तिविभावरीकान्त'करोपलम्भात् ॥
चन्द्रमा की किरणों को प्राप्त कर कमलिनियों ने बाहर निकलने वाले चपल भ्रमरों के व्याज से वियोग की वह्नि से उठने वाली धूमपंक्ति को छोड़ा। ..
१६. कलिन्दकन्या पयसेव सिक्तं , कस्तूरिकावारिभरेण किवा। .
किं वाञ्जनाम्भोभिरसेचि भूमीतलं तदानीं तमसैवमासीत् ॥ .
उस समय वह भूमितल अन्धकार के कारण ऐसा लग रहा था मानो कि वह यमुना के पानी अथवा कस्तूरिका के पानी अथवा काजल के पानी से सींचा गया हो।
१७. अनेकवर्णाढ्यमपि प्रकाममासीदिदानी जगदेकवर्णम् ।
तमःक्षितीशे प्रभुतां प्रपन्ने , प्रभुत्वमेतादृशमेव विश्वे ॥
अनेक वर्षों से सम्पन्न जगत् भी उस रात्रि-वेला में एक वर्ण वाला प्रतीत हो रहा था। विश्व में जब अन्धकार रूपी राजा की प्रभुता बढ़ती है तब ऐसा ही प्रभाव होता है।
१८. त्वं पश्चिमाशा मधुना गतोऽसि , त्रयीतनो ! देववशेन हन्त । । त्वमभ्युदेता च रवैद्विजाना माशा इतीवाशिषमर्पयन्त्यः॥
दिशाओं ने अस्तंगत सूर्य को पक्षियों की चहचहाहट से आशीर्वाद देते हुए कहा'सूर्य ! अभी तुम भाग्यवश पश्चिम दिशा में चले गए हो, इसका मुझे खेद है किन्तु तुम पुनः उदित होओगे।'
१. विभावरीकान्तः-चन्द्रमा। २. कलिन्दकन्या-यमुना (कालिन्दी सूर्यजा यमी-अभि० ४।१४६) ३. आशा-दिशा (काष्ठाशा दिग् हरित् ककुप्-अभि० २।८०) ४. त्रयीतनुः-सूर्य (त्रयीतनुर्जगच्चक्षुः—अभि० २।१२) ५. देवं-भाग्य (देवं भाग्यं भागधेयं-अभि० ६।१५) ६. द्विजः-पक्षी (द्विजपक्षिविष्किर.....'-अभि० ४।३८२)