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अष्टम: सर्ग:
१०. नभस्थलं तारकमौक्तिकाढ्यं , विभावरीभीर शिरोविराजि । __राजागते मङ्गलसंप्रवृत्त्य , वैडूर्यकस्थालमिव व्यभासीत् ॥
चन्द्रमा के उदित होने पर मंगल प्रवृत्ति के लिए विभावरी रूपी स्त्री के शिर पर तारक रूपी मोतियों से सम्पन्न नभ-स्थल वैडूर्य के थाल की भांति शोभित हो रहा था।
११. अस्तं प्रयाते किल चक्रबन्धा वनुद्यते राजनि तेजसाढ्ये ।
चौरेरिव व्याहतदृष्टिचारस्तमोभरानशिरे दिगन्ताः ॥
सूर्य के अस्त हो जाने पर तथा दीप्तिमान चाँद के न उगने पर दृष्टि को व्याहत करने वाला अन्धकार चोरों की भाँति सभी दिगन्तों में व्याप्त हो गया।
१२. आप्लावयामास जंगत्तमोमिविकाशितालीवनराजिनीलैः।
संवर्तपाथोधिरिव त्रियामा क्षणः पयोभिः परितः प्रवृद्धः॥
जैसे प्रलयकाल का समुद्र सब ओर से बढ़े हुए जल से जगत् को प्लावित कर देता है वैसे ही रात्रि के समय ने विकसित ताली वनराजी की भाँति नीले अन्धकार के द्वारा .समूचे जगत् को प्राप्लावित कर दिया ।
१३. हंसः प्रयातश्चरमाद्रिचूलां , तमिस्रकाकः प्रकटीबभूव । .स्थाने रथाङ्गाह्वसतां वियोगः , पापेऽधिके किं सुखमुत्तमानाम् ?
सूर्य अस्ताचल पर्वत पर चला गया और अन्धकार रूपी काक प्रकट हो गया। ऐसी स्थिति में चक्रवाक रूपी सज्जनों का वियोग उचित ही है। पाप के बढ़ जाने पर क्या उत्तम व्यक्तियों को सुख मिलता है ?
१४. समत्ववैषम्यसतत्त्ववेदस्तमोभरे व्याप्नुवति प्रकामम् ।
आसीन्नदृष्ट्येकनिबद्धचारे , दौर्जन्यभाक्स्वान्त इवासितामे ।।
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१. भीरुः-स्त्री (कान्ता भीरुनितम्बिनी–अभि० ३११६८) २. राजागते:-चन्द्रागमनात् । ३. चक्रबन्धुः—सूर्य । ४. हंसः-सूर्य (ब्रघ्नो हंसश्चित्रभानु:-अभि० २।१०) ५. स्थाने–युक्तम् । ६. रथाङ्गाह्वसतां-कोकमहात्मनाम् ।