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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम्
... ७८. क्वचित् सरसिजाननानयनविभ्रमैः श्यामलं,
विमानमणिरोचिषां समुदयविचित्रं क्वचित् । क्वचित् त्वगुरुयोनिभिर्दहनकेतनैर्वात्यया,
विहायसि वित्तितैरसमयापिताब्दभ्रमम् ॥ ७६. क्वचित् कुसुमकुड्मलैः सकलिकैर्मनोज्ञश्रियं,
भ्रमभ्रमरकूजितैर्मुखरतोद्धतं स क्वचित् । क्वचिच्चटुललोचनास्तनघटावलीघट्टनात्, पतिष्णुवरमौक्तिकैविशदमानशे श्रीपथम् ॥ .
-युग्मम् ।
महाराज भरत राजमार्ग पर आ पहुंचे। वह राजमार्ग कहीं-कहीं स्त्रियों के नयनकटाक्षों से श्यामल और कहीं-कहीं विमानों की मणियों के रश्मि-समूह से विचित्र सा हो रहा था। स्थान-स्थान पर जल रहे काले अगर से निकलने वाला धुंआ वायु से प्रेरित होकर आकाश में नाच रहा था। उससे असमय में ही बादलों का भ्रम पैदा हो जाता था ।
कहीं-कहीं वह राजमार्ग कलिकाओं से युक्त फूलों के गुच्छों से मनोज्ञ शोभावाला, कहीं कहीं घूमने वाले भौंरों के गुजारवों से प्रचण्ड मुखरित और कहीं-कहीं स्त्रियों के स्तन रूपी कलशों के परस्पर घट्टन से नीचे गिरने वाले मोतियों से विशद (शुभ्र) था।
८०. एतस्याने संचचाराथ चक्रं , स्फूर्जज्ज्योतिर्लक्ष्यवैलक्ष्यकारि।
सर्वाशान्तान् व्यश्नुवानः स्फुलिङ्ग राकाशस्थास्त्रासयद्देवनारीः ॥
महाराज भरत के आगे-आगे चक्र चल रहा था। वह हजारों ज्योतियों से स्फुरित होता हुआ शत्रुओं के लक्ष्य को भटका रहा था । उसकी चिनगारियाँ दशों दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं। वह आकाशस्थित देवांगनाओं को भयभीत कर रहा था।
८१. तदिति सुरनरैय॑तकि चित्ते , किमिदमुपागतमान्तरं महोस्य ।
प्रथमभवभवः किमेष पुण्योदय इह संश्रित एव मूर्तिमत्त्वम् ॥
यह देखकर देवताओं और मनुष्यों ने अपने मन ही मन सोचा-क्या भरत चक्रवर्ती का आन्तरिक तेज यहां आ गया है ? अथवा क्या पूर्वजन्म में प्राप्त यह पुण्योदय ही मूर्तिमान् हो गया है ?
- इति सेनासज्जीकरणो नाम पञ्चमः सर्गः