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पञ्चदशः सर्गः . विद्याधर सुगति ने शार्दूल का भी उसी प्रकार रोक डाला । उन दोनों के बीच देवों और दानवों को भी चकित करने वाला भयंकर युद्ध हुआ।
१०८. चण्डांशुः काण्डवृष्ट्याल'मतुल्याऽखण्डरूपया।
पिदधे मेघपंक्त्येवाकाण्डे कोदण्डधारिणोः॥
उन धनुर्धर दोनों युगलों (मितकेतु-सूर्ययशा और सुगति-शार्दूल) की असाधारण तथा निरन्तर होने वाली पर्याप्त बाण-वृष्टि से सूर्य असमय में वैसे ही ढंक गया जैसे मेघ-पंक्ति से ढंक जाता है।
१०६. गदापट्टिशनिस्त्रिशः, संसजद्भिर्नभो मिथः। .
शस्त्राणि किमु युद्धचन्ते , सुरैरप्येवमौह्यत ॥ आकाश में गदा, पट्टिश (पटा).और तलवारें परस्पर मिल रही थीं। इसे देखकर देवताओं ने भी यह वितर्कणा की—'क्या शस्त्र ही परस्पर लड़ रहे हैं ? ११०. रक्तार्धकुम्भमुक्ताभिर्गुजाभिरिव निर्ममुः।
__ मिल्लस्त्रिय इवामर्यो , हारान् कौतुकतस्तदा ॥ जैसे भिल्ल-स्त्रियां गुंजाओं का हार बनाती हैं, वैसे ही देवांगनाओं ने तब कौतुकवश अर्धरक्तकुम्भ-मुक्ताओं से हार बनाये। १११. मनोरथमिव रथं , साथि सह केतुना ।
मूर्त दपंमिवाथांस्य , शार्दूलस्याऽभनक त्वसौ ॥ विद्याधर सुगति ने सारथि और पताका के साथ शार्दूल के रथ को मनोरथ की भांति तोड़ डाला। उसने रथ को नहीं तोड़ा किन्तु मानो उसने उसके मूर्त दर्प को ही तोड़ दिया। ११२. अनेषीत् स्वे स विद्यामृच्छालं रथपञ्जरे ।
... नागपाश ढं बध्वा, खड्गव्यग्रकरं बलात् ॥
शार्दूल का हाथ तलवार चलाने के लिए व्यग्र हो रहा था। उस समय विद्याधर सुगति ने उसे बलात् नागपाश से दृढतापूर्वक बांधकर अपने रथ-पंजर में ले लिया।
११३. उन्मुक्तः सोऽहिपाशेभ्यो , मन्त्रेण भुजगद्विषः ।
तीक्ष्णधुतिरिवाभ्रेभ्योऽधिकतेजास्तमभ्यधात् ॥
१. अलं-पर्याप्तम् ।