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कथावस्तु -
गुप्तचरों का संवाद सुनकर महाराज भरत गंभीर हो गए । उन्होंने अपने सामन्तों से युद्ध के विषय में चर्चाएं कीं, और उन्हें धैर्य रखने के लिए : प्रेरित किया । उन्होंने कहा - 'जिनमें तनिक भी कायरता हो वे यहां से चले जाएं । यद्यपि मेरी सेना बहुत विशाल है और बाहुबली की सेना छोटी है, किन्तु संग्राम में पराक्रमी सेना ही विजय प्राप्त करती है, छोटी बड़ी नहीं । जो आत्माभिमानी सुभट युद्धस्थल में सबसे पहले अपने प्राणों की आहुति देते हैं वे स्वामी के ऋण से उऋण हो जाते हैं । वे ही वीर सुभट संसार में यश प्राप्त करते हैं जिनके तीर हाथियों के कुंभस्थलों को भेदने में दक्ष होते हैं। छह खंडों को जीतकर जिस यश का मैंने संचय किया है, उसे आप धूमिल न कर डालें ।'
तब सेनापति सुषेण ने आकर भरत से कहा - 'महाराज ! ये हजारों राजे और करोड़ों सुभट युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।'
तत्पश्चात् सुषेण ने बाहर से आए हुए मालव, मगध, कुरु, जांगल आदि जनपदों के राजाओं का परिचय दिया और कहा - 'देव ! इसी प्रकार सीमान्तवासी किरात और हजारों देव आपके साथ हैं ।' महाराज भरत का उत्साह शतगुणित हो गया । उन्होंने कहा - 'जब तक मैं बाहुबली को नहीं जीत लूंगा तब तक मुझे शांति नहीं मिलेगी । उसके जीतने पर ही मेरा साम्राज्य मुझे संतुष्टि दे सकेगा ।' इतने में ही बाहुबली के दूत भरत के पास आकर बोले- 'प्रभो ! हमारे स्वामी जानना चाहते हैं कि रणभूमीका निश्चय कहां किया गया है ?' चक्रवर्त्ती भरत ने कहा - 'यहां पास में ही गंगा नदी है, उसी के तट पर हमारा युद्ध होगा । तुम्हारा स्वामी अपने देश की सीमा पर पड़ाव डाले । कल हम वहां मिलेंगे ।'
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