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द्वादशः सर्गः
१.
इतीरितां चारगिरं निशम्य , सगौरवं सोऽथ गुरुपाणाम् । बमाण भूपान् सनयान्निदेशे , झुपस्थिते गौरवमाचरन्ति ॥
उक्त प्रकार से कथित गुप्तचर की वाणी को सुनकर चक्रवर्ती महाराज भरत ने नीतिज्ञ राजाओं से गौरवपूर्वक कहा कि आज्ञा प्राप्त होने पर नीतिज्ञ पुरुष गौरव का आचरण करते हैं।
२.
अवमि तस्यापि भवद्भुजानां , बलं क्षितीशा! मम दृष्टपूर्वम् । बलद्वयी संक्रमणात्मदर्शी , ममास्ति चित्तं हितमुद्दिशेत्तत् ॥
भरत ने कहा-'राजाओ ! मैं आपके और बाहुबली के भुजबल को जानता हूँ। मैंने उस पराक्रम को प्रत्यक्ष देखा है। मेरे मन रूपी कांच में दोनों पक्षों के बल का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है । वह चित्त हित का ही उपदेश दे रहा है।'
३.
युष्माभिरेवारचि वैरिभङ्गः , पुरापि दिक्चक्रजये जयज्ञैः । . कूलङ्कषाणां हि कषन्ति कूलं , लहर्य एवाम्बुधरप्रवृद्धाः ॥
'इससे पूर्व भी विजय को प्राप्त करने वाले आप लोगों ने ही दिशाओं के विजय-प्रसंग में शत्रुओं का नाश किया था। क्योंकि मेघ के बरसने से बढ़ी हुई लहरें ही नदियों के. तटों को तोड़ती हैं।'
४.
रथन्ति भूपाः किल तत्र वीरा , धुरं धरन्ति स्थितिसेवितारः। विना प्रवीरान्न जयन्ति भूपा , यतो धुरं वोढमलं महोक्षाः ॥
'युद्ध-स्थली में राजे रथ के समान और अनुशासित वीर योद्धा धुरा के समान होते हैं।
१. महो क्षः-बड़ा बैल (महोक्षः स्यादुक्षतरो--अभि० ४।३२४)