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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् के बाणों के अग्र से भिन्न अपने शरीर द्वारा बाणों के अग्र भाग में रहने वाली पाँखों को धारण कर रही थी।
६१. व्यजीज्ञपद् दूतिमुखेन भूपं , सा स्वर्वधूरेवमनन्यरूपम् ।
का स्मेरनेत्रा विभवेदलज्जा , कामाभिलाषं स्वमुखेन वक्तुम् ?
गंगा देवी ने अपनी दूती के साथ अप्रतिम रूप के धनी महाराज भरत को इस प्रकार (जो आगे कहा जा रहा है) कहलाया। कौन विकस्वरनेत्रा नारी अपने काम (मदन) की अभिलाषा को स्वयं अपने मुख से कहने में निर्लज्ज हो सकती है?
६२. प्रोतिर्भवत्यस्ति तृतो विचारस्तया विधीयेत न मर्त्यमात्रे । ..
प्रीतियनू हा नरदेव ! देवी , भवद्वियोगे विधुराधुनेयम् ॥
दूती ने कहा-'नरेन्द्र ! आपके प्रति गंगा देवी का प्रेम है अतः उसने आपके प्रति विचार किया है। यह विचार मनुष्य मात्र के प्रति नहीं है। क्योंकि प्रीति में तर्क नहीं होता । वह देवी इस समय आपके विरह से व्याकुल है।
६३. त्वं मानुषीभोगनिमग्नचित्तः , स्वर्गाङ्गनानां न हि वेत्सि लीलाम् ।
पीयूषसिन्धोरमृतकसङ्गः , कथं निवेद्यो लवणाब्धिमीनः ।
दूती ने आगे कहा-'राजन् ! आपका चित्त मंनुष्य सम्बन्धी भोगों में निमग्न है। आप देवांगनाओं की लीलाओं को नहीं जानते । सच है कि लवण समुद्र में निवास करनेवाली मछलियों को क्षीर समुद्र के अमृतमय संग को कैसे बताया जा सकता है ?
६४. स्वरूपलावण्यकलावलेपाच्छक्रेऽपि या दृष्टिमदान्न किञ्चित् ।
लक्ष्मीरिवास्वे रजनीव चन्द्र , बिभर्ति रागं भवदीहिनी सा॥
जिसने अपने स्वरूप, लावण्य और कला के अहंकार के कारण, दरिद्र के प्रति लक्ष्मी की भांति, इन्द्र पर भी कभी अपनी दृष्टि नहीं डाली, वह देवी गंगा आपको चाहती है और जैसे रात चांद के प्रति अनुरक्त रहती है वैसे ही वह आपके प्रति अनुरक्त है।
६५. मन्दाक्षमन्दाक्षमवेक्ष्य चाहं , तस्या मुखं सानिम निनिमेषम् । .
भवन्तमेता सुभगावतंसं , सर्वान्तराकारविदो ह्यभिज्ञाः॥
१. अनूहा-वितर्करहिता। २. सानिमः-सप्राणः।