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द्वितीयः सर्ग:
'लज्जा से कुछ मूंदी हुई आंखों वाला तथा सप्राण होते हुए भी निनिमेष उसका मंह देखकर मैं भाग्यशालियों में शिरोमणि आपके पास आई हूँ, क्योंकि अभिज्ञ लोग सब आन्तरिक आकारों को जानने वाले होते हैं।
६६. असंस्तवाद्रिः किल दूतिवाक्यवज्रण भिन्नो विहितान्तरायः ।
एवं तयो रागवतोर्बभूव , संपृक्तिरन्योन्यरसातिरेकात् ॥
दूती के वाक्य रूपी वज्र से अपरिचय का पर्वत, जो दोनों के बीच विघ्न उपस्थित कर रहा था, टूट गया। इस प्रकार पारस्परिक रस के अतिरेक से, राग से रक्त उन दोनों में सम्पर्क स्थापित हो गया।
६७. विस्मृत्य शुद्धान्त वधूविलासाँस्तत्र क्षितीशोऽब्दसहस्रमस्थात् ।
नालेः करीरद्रुमविस्मृतिः स्यात् , कि मल्लिकापुष्परसप्रसक्त्या ?
महाराज भरत अपने अन्तःपुर की रानियों के विलासों को भूलकर उस नदी तटपर एक हजार वर्ष तक बैठे रहे । क्या भ्रमर मल्लिका पुष्प के रस का आस्वादन करते समय करीर के वृक्ष को नहीं भूल जाता ?
६८. वशीकृतान्तःकरणस्तथापि , न स्थातुमैहिष्ट रथाङ्गपाणिः ।
सन्तो युगान्तेप्यविलङ्घनीयान् , धर्मार्थकामान् न विलङ्घयन्ति ।
गंगा देवी ने भरत के चित्त को वश में कर लिया था, फिर भी उन्होंने वहां ठहरना नहीं चाहा । क्योंकि सज्जन पुरुष अलंघनीय धर्म, अर्थ और काम का युगान्त में भी उल्लंघन नहीं करते।
६९. ततश्चचालाधिपतिन पाणामुदीच्यवर्षाद्ध महीमहेन्द्रान् ।
विजेतुमोजोधिकदुःप्रधर्षान् , दैत्यानिवेन्द्रो रविवत् तमांसि ॥
चक्रवर्ती भरत ओज से अधिक दुर्धर्ष उत्तरीय क्षेत्रार्द्ध के राजाओं को जीतने के लिए आगे बढ़े, जैसे इन्द्र दैत्यों को और सूर्य अन्धकार को जीतने के लिए आगे बढ़ता है।
७०. अनम्रमौलीनपि नम्रमौलीन् , धृतातपत्रानधृतातपत्रान् ।
विधाय राज्ञः स्वपुरं स आगान्न दोष्मतां चित्रकरं हि किञ्चित् ॥
१. शुद्धान्तः–अन्तःपुर (शुद्धान्तः स्यादन्तःपुरम् -अभि० ३।३९१)