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________________ द्वितीयः सर्गः . ३७ ५६. स कन्दरद्वारमवार्यवीर्यः , क्रमादथोद्घाट्य विवेश तत्र । ___ काकिण्यसंख्येयमहःप्रभावतिरोहितध्वान्तभरे पुरस्तात् ॥ अप्रतिहत शक्तिवाले भरत क्रमशः गुफा का द्वार खोल उसमें प्रविष्ट हो गए । वह कन्दरा अधंकार से व्याप्त थी किन्तु चक्रवर्ती के काकिणी रत्न की असंख्य किरणों के प्रभाव से सारा अन्धकार आगे से आगे नष्ट होता गया । ५७. स मल्लिकाकोडविलोललीलर्मन्दाकिनीशीकरिभिः सिषेवे । करीन्द्रकुम्भस्खलनातिमन्दर्मार्गे हतक्लान्तिभरैः समीरैः ।। मल्लिका के पुष्पों की गोद में विलोल लीला करने वाले, गंगा के शीतल जल-कणों से युक्त,गजेन्द्रों के कुंभस्थल से बहने वाले मद के कारण अतिमंद गतिवाले तथा क्लान्ति के समूह को नष्ट करने वाले पवन ने मार्ग में भरत की सेवा की। ५८. स भूभृदुत्कृष्टतरप्रभावो , भूतैः पृथिव्यादिभिरप्यसेवि । औत्कृष्ट्यतः प्राघुणकेषु.सत्सु , स्वीयं हि माहात्म्यमलोपनीयम् ॥ 'महाराज भरत उत्कृष्ट प्रभाव वाले हैं'-यह सोचकर पृथ्वी आदि सभी भूतों ने उनकी उपासना की। क्योंकि उत्कृष्ट अतिथि के होने पर अपने बड़प्पन का लोप नहीं करना चाहिए, उसकी रक्षा करनी चाहिए। ५६. स नौविमानरवतीर्यसिन्धू , तपस्क्रियाराधितसन्निधानः । धुलोकलक्ष्मीमुषि जान्हवीये , सेनानिवेशं विततान तीरे ॥ भरत ने नौका-विमानों द्वारा सिन्धु नदी को पार किया। उन्होंने स्वर्गलोक की शोभा का हरण करने वाले गंगा के तीर पर अपनी सेना का पड़ाव डाला तथा तपस्या और क्रिया द्वारा निधानों की आराधना की। . ६०. विलोक्य तं मन्मथहारिरूपं , पुष्पेषुबाणानविभिन्नतन्वा । बाणान्तपक्षानिव संबभार , गङ्गापि रोमोद्गमलक्षतो द्राक् ॥ भरत का कामदेव जैसा सुन्दर रूप देखकर गंगा रोमांचित होने के बहाने मानो मदन १. काकिणी-चक्रवर्ती का रत्नविशेष । २. पुष्पेषु......"तत्वा-पुष्पेषोः-कामस्य, बाणाग्राणि-शरोपरिभागास्तविभिन्ना-विहता तनुस्तयेति । ० 'तन्वी' इत्यपि पाठः ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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