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तृतीयः सर्गः १०१. देव ! तस्य मदोद्धृतरजो नोच्चिक्षिपे मनाक् । ___ मम व्यक्तोक्तिवात्याभिः', पुजीभवदिवाभितः॥
देव ! बाहुबली के मद से प्रकंपित रजें मेरी स्पष्ट उक्तियों के वातूल से किञ्चित् भी ऊपर नहीं उड़ीं, किन्तु चारों ओर पुजीभूत हो गईं।
१०२. पयोधिरिव कल्लौलस्तेजोभिरिव भानुमान् ।
दुःप्रधर्षो भटैरेष , केन जेयो रणाजिरे ॥
जैसे कल्लोलों के द्वारा समुद्र और तेज के द्वारा सूर्य दुष्प्रधर्ष होता है, वैसे ही बाहुबली भी सुभटों द्वारा दुष्प्रधर्ष हैं । संग्राम में उन्हें कौन जीत सकता है ?
१०३. कृशानुः शीततां याति , वेगं त्यजति चानिलः ।
सकम्पः स्यात् सुवर्णादिर्जलवेधूलिरुद्भवेत् ॥ १०४. परं देव ! तव भ्राता , त्वदाज्ञां न दधाति च ।
नास्य चक्रेन्द्रचक्राद्यातङ्कस्ताटङ्कति श्रुतौ ॥
-युग्मम् ।
अग्नि शीतल हो जाए, वायु अपना वेग छोड़ दे, मेरु प्रकंपित हो जाए और समुद्र की धूली बाहर निकल आए, फिर भी देव ! आपके भाई आपकी आज्ञा धारण नहीं करेंगे। उनके कानों में चक्रवर्ती और चक्र का आतंक कुंडल का रूप नहीं लेगा।
१०५. दूतत्वात् त्वमवध्योसीत्युक्त्वाहं मोचितो बहिः ।
किंकरैः कुलभोगीव' , तेन दुर्दान्ततेजसा ।
'तुम दूत हो, इसलिए अवध्य हो'-ऐसा कहकर दुर्दान्त, तेजस्वी बाहुबली ने मुझे अपने सेवकों द्वारा बाहर निकाल दिया, जैसे कि कोई कुल-सर्प को पकड़ कर बाहर छोड़ देता है।
१०६. षट्खण्डाधिपतिरयं तदीयवाचा,
क्रुद्धोऽपि प्रसभमुवाच नोग्रवाचम् । अम्भोधिर्जलदजलैः किमुत्तरङ्गः ?
शीतांशुः किमवति दाहमुष्णकाले ? १. वात्या-तूफान (वातूलवात्ये वातानां-अभि० ६।५७) २. ताटकति–ताटंक:-कुण्डलम्, तस्य इव आचरति इति ताटंकति । ३. कुलभोगी—कुलसर्प। ..