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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् छह खण्डों के स्वामी भरत दूत की बातों से अत्यन्त ऋद्ध होने पर भी कुछ नहीं बोले। क्या समुद्र मेघ के पानी से कभी उछलने लगता है ? क्या चन्द्रमा ग्रीष्म ऋतु में भी कभी दाह उत्पन्न करने वाला होता है ?
१०७. सत्कृत्य रत्नकनकाभरणप्रदान
क्यिावकाशविदुरं विससर्ज दूतम् । पुण्योदयाढ्यहृदयः सदयः क्षितीशो, नो तादृशां हि विनिषेवणमत्र वन्ध्यम् ॥
अपने पुण्य के उदय से परिपूर्ण हृदयवाले और सद्भाग्य के धनी महाराज भरत ने रत्न, कनक, आभूषण आदि देकर वाक्पटु दूत को ससम्मान विसर्जित किया। क्योंकि चक्रवर्ती जैसे महान व्यक्तियों की सेवा कभी निरर्थक नहीं होती।
-इति दूतप्रत्यागमो नाम तृतीयः सर्गः
१. वाक्यावकाशविदुरं-वाक्यस्य वचनस्य योऽवकाशोऽवगाहनं तत्र विदुरं पंडितं । २. सदयः-सद्--शोभनं अय:-भाग्य--सदय:--सद्भाग्यः (अभि० ६।१५ अयस्तु तच्छुभम् ।) ३. तादृशां-चक्रवर्तिसदृशानाम् । ४. विनिषेवणं—पयुपासनम् ।