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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् चक्रवर्ती भरत ने दूर से आते हुए अपने प्रिय दूत को देखा और अमृत बरसानेवाली अपनी दृष्टि से उसे निरंतर नहलाया।
६६. आयातो भूरिभिर्वत्स ! वासरस्त्वमनातुरः । ... बन्धोर्बाहुबलेः कच्चिद् , भद्रमस्तीति वेदय ॥
'वत्स ! तुम स्वस्थ हो ? बहुत दिनों से लौटे ? मुझे बताओ-क्या बाहुबली के कुशलक्षेम है-कल्याण है ?'
६७. इति राज्ञा स्वयं पृष्टो , नत्वा सप्रीति सोऽब्रवीत् ।
__ स्वामिसंभाषिता भृत्या , गच्छन्ति हि परां मुदम् ॥
महाराज भरत के स्वयं यह पूछने पर वह दूत नत होकर प्रेमभरी वाणी में बोला। क्योंकि स्वामी द्वारा प्रिय संबोधन से संबोधित होने पर सेवक परम आनन्दित हो जाते हैं।
६. स्नेहो मयि विधीयेत , तदल्पा अपि वासराः।
___ बभूवुर्भूप ! भूयांस: , क्षणं स्नेहे हि वर्षति ॥
'राजन् ! आपका मेरे प्रति स्नेह है, इसलिए ये थोड़े से दिन भी अधिक हो गए। क्योंकि स्नेह में क्षण भी वर्ष के बराबर हो जाता है।'
६६. शङ्कमानो यमो यस्मान् , नाकाले हन्ति जीवितम्।
नृणां कि पृच्छ्यते तस्य , कुशलं कुशलामधीः !?
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'हे कुशल सूक्ष्म बुद्धिवाले ! यमराज भी जिनसे सशंकित होकर अकाल में प्राणियों का जीवन हरण नहीं करता, उन बाहुबली की आप क्या कुशल-पृच्छा करते हैं ?
१००. मानमातङ्गमारूढः , केन प्रभ्रश्यते हठात् ।
सोयं बाहुबलिर्वीरो , वीरमानी जगत्त्रये ॥
'वे वीर बाहुबली अपने - आपको तीनों लोकों में परम वीर मानते हैं। वे अहंकार के हस्ती पर आरूढ हैं। उनको अहंकार के हाथी से कौन बलात् उतार सकता
है ?
१. वर्षति-वर्ष इवाचरति।